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कैवल्यः प्रभुको केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त होनेपर सब इंद्र अपने परीवारके साथ प्रभुकी पयुर्पासना करने आते है। प्रभु जब प्रवचन करते हैं तब समवसरणमें जघन्य १ करोड देवता उनकी सेवा करते हैं। धर्मकथा सुननेके पश्चात भव्य देवता और मनुष्य प्रश्न करते है और प्रभुके मुखसे समाधान पाकर प्रमुदित होते है ।
निर्वाणः अष्टकर्मीको क्षयकर प्रभु जव सिद्ध होते है तब इंद्र के आसन कंपायित होते है। देवाधिदेव इंद्र आदि वहां पर पहुंचते है । प्रभुके शरीरको स्नान कराते है, चंदनका लेप करते है और वस्त्र उढाते है । उस समय उनका हास्य विलास छुट जाता है। आंखोसे वियोगाश्रु वहते है । प्रभुके शरीरको चंदनकी चितापर रखते है, इंद्रकी आज्ञासे अग्निकुमार चितामें अग्निप्रज्वलित करता है, वायुकुमार इसे प्रदिप्त करता है, शरीरके जल जानेपर मेघकुमार उसे शांत करते है । मघवादि इंद्र शुभभावोसे अस्थिया चुनकर माणवक चैत्यमें रखते है।
प्रभुके जन्म, दिक्षा, कैवल्य और निर्वाणपर सभी देव देविया अत्यंत हर्षउल्लासके साथ नंदिश्वरद्विपमें जाकर अष्टाह्निक महोत्सव मनाते है, शुभ कर्मोका बंध करते है ।
उपसंहारः देवरचनाका मूल प्रयोजन देवगतिका वर्णन हैं प्रसंगवश कविश्री हरजसरायजीकी सिद्धहस्त कलम ने कई अन्य विषयोंको भी स्पर्श किया है। सिद्ध स्तुति और जिनवाणी महिमा इन दो विषयो पर कविने पर्याप्त चिन्तन अपनी रचनामें किया है। अनेकानेक उपमाओसे उपमित करते हुए सिद्ध भगवान और जिनेंद्र भगवानकी २२ छंदोमें स्तुति की है। जिनेंद्र स्तुतिके वाद कविने हृदयकी गहराईयोसे, शुभ भावोसे जिनवाणी की श्रेष्ठताका संगान किया हैं। क्यो की जिनवाणी प्राकृत भाषामें है अतः कविने प्राकृत भाषाका ही उपयोग किया है। जिनवाणी परमगुरुकी वाणी है और गुरुओके माध्यमसे ही हमतक पहुंची हैं अतः कविने सर्व गुरु अक्षरोसे जिनवाणीकी महिमा गायी है। एक लघुअक्षरका प्रयोग इन छंदोमें नही हैं इस कारण यह ग्रंथका सबसे जटिल विषय वना हैं तथापि कविकी पांडित्यपूर्ण रचनाशैली भक्तिरसका पान कराने में समर्थ रही है।
देवरचना ग्रंथकं उत्तरार्धमें कविश्रीने कई थोकबोलीकी भी अनेकानेक छंदोमें चर्चा की हैं: जैसे बासटिया बोल, १८ वोलका अल्पवहुतत्व, आठ कर्मकी प्रकृतिया, जीवकी गति - आगति, तिर्थंकरोके ३४ अतिशय, तिर्थंकर गोत्र उपार्जनके २० बोल आदि कवि हरजसरायजीने एक एक छंदमें अलग अलग विषयोंको, तत्त्वोको सटिकतासे गुंथा हैं । दुमल छंद क्रं. ४०२ में श्रावे' २१ गुण तथा ११ प्रतिमाओंका उल्लेख हुआ है। और छंद क्र. ४०३ में साधुके २७ गुण तथा १२ प्रतिमाओंका उल्लेख हुआ है। इंद्रवजा और सोरटा छंदमें कविने देव, गुरु, धर्मकी महिमा बताते हुए समकितधारी जीवकी स्तुति की है। दोहरा छंद ६ और नाराच छंद ४७७ में कविने नव पुण्योका वर्णन किया हैं तो रसावल छंदमें अठारह पापस्थानका वर्णन ૩૨ + ૧૯મી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો