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आचार्य विजयवल्लभ ने स्वयं देखे थे। पुनः १९१९ से १९४७ ई. तक की सभी राष्ट्रीय घटनाएँ भी उनके सामने ही घटित हुई थी।
समाज में धार्मिक चेतना का क्रम अपने चरम शिखर पर था। राजाराम मोहनराय, स्वामी दयानंद, श्री परमहंस, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ और आचार्य विजयानंद ने देश के बुद्धि जीवियों का ध्यान समाज सुधार की ओर खींचा था। उच्च कोटि के समाज सुधारक, विद्वान व कवि आचार्य विजयानंद का पालीताना में आचार्य पदवी से विभूषित किया जाना भी विजयवल्लभ ने अपनी साधु-दीक्षा पूर्व के समय, छगन के रूप में देखा था। चिकागो (अमेरिका) में सन् १८९३ में हुई पहली विशाल वर्ल्ड-पार्लियामेंट आफ रिलीजियन्ज में उनके गुरु आत्मारामजी (विजयनंदसूरि) को जैनधर्म के प्रतिनिधि के रूप में निमंत्रण मिला था। उसका पूरा पत्र व्यवहार तथा बैरिस्टर वीरचंद राघवजी गांधी को तैयार करके भेजना आदि में भी विजयवल्लभ का अतुलनीय योगदान था। उन्हीं गुरु के चरित्र, व्यक्तित्व, विद्वत्ता, दूरदर्शिता तथा शिक्षाओं व उपदेशों का प्रभाव विजयवल्लभ पर पूर्ण रूप से पड़ा था। उनके नगर प्रवेशों में गुरुभक्ति, देशभक्ति तथा एकता आदि के गीत गाए जाते थे - जैसे
..... तेरा चमकेगा रोशन सितारा गुरु
... है नाम गुरु वल्लभ तारण तरन तुम्हारा विदेशी शासकों के प्रतिः ... तुसीं इंगलैंड नू जावोजी
उत्थे कोयला लोहा खावो जी ... गाँधी बाबा केहँदा सानुं चरखे दी लोड है .... छई, छई बाबा लून वालिया... (लून - नमक)
काव्य-भाषा विजयवल्लभ की रचनाएँ, प्रायः हिंदी, खडी वाली व प्रचलित भाषा में है। हिंदी भाषा में रचित उनके काव्यों में गुजराती, मारवाडी, उर्दू, संस्कृत, प्राकृत, अवधी, व्रज आदि के सुप्रचलित शब्दों का भी खूब प्रयोग हुआ है। हिंदी को 'जिनवर वाणी भारती' कह कर उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा माना और स्पष्ट तौर पर कहा कि 'जनहित कारणे गावो जी, हिंदी भाषा मांही प्रचार।' खुद गुजराती भापी होते हुओ भी अन्य महान संतों की तरह अत्यंत संयत व संतुलित भाषा का ही प्रयोग किया। फिर भी उनके विहारक्षेत्र व कार्यक्षेत्र का प्रभाव उनकी भाषा पर स्पष्ट था।
___अपनी दीक्षा के तीन साल बाद ही वे अपने गुरुदेव श्री आत्मारामजी के साथ पंजाब में आ गए और लगातार १९ साल पंजाव की ही भूमि पर उनके
आचार्यश्री विजयवल्लभसूरि व्यक्तित्व-कवि-काव्य + 93