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ये सभी चौमासे हुए। पंजाबी भाषा के शब्द, क्रिया व संज्ञाएँ उनकी कविताओं में भरपूर मिलते है। पंजाबी के कुछ स्तवनों में उनकी रचना - 'दिल है करदा, चलिये अपने सतगुरु दे कोल' तथा 'लीनी मैं वागां सब तो मोड' अभी तक भी पूरे चाव से गाये जाते हैं।
प्रचलित पंजावी तर्जे, लच्छी के गाने, मराठी व सोरठी लावणियां, गुजराती गीतों की धुनें, अंग्रेजी बैंड व कव्वालियों, गजलों की तर्जे विजयवल्लभ को विशेष पसंद रही। गजलों में उनकी संस्कृत कव्वाली -
जाने किं गतं मावि, यदि मां त्रास्यसे स्वामिन्
वदन्ति पण्डिता नित्यं, भवतं तारकं स्वामिन्... (ध्रुवपदम) संस्कृत गजल - .. करूणा सुधामि भरितं, चरितं हि ताव कीनम् राजस्थानी लोकप्रिय धुन पर... ___... वारी जाऊँ रे केसरिया, सायरा गुण गाऊरे तथा ___... फूल्यो मास वसंत का, म्हारा हालाजी
अंग्रेजी शब्दों-कैमरा, डिग्री, फोटा, प्लीडर, नाईट, माईल आदि की शब्दावली मिश्रण करके राष्ट्रभाषा हिंदी को गौरव प्रदान किया है। प्रभु के आगे वे कहते हैं -
तुम मूर्ति मुझ मन कैमरा
फोटो सम स्थिर एक विपुल में काव्य रचनाओं में फारसी के शब्द, अनलहक (अहंब्रह्मास्मि), फजर, जम्बुनद (स्वर्ण) मुजक्कर (पुल्लिंग), मुअन्नस (स्त्रीलिंग) आदि भी मिलते हैं।
समकालीन गीतों के अनुरूप ही वे कह रटे - 'सजनी मोरी, पर्व पजूसण आव्या रे, तथा 'सुमति सखी प्रीतम सुख जोवे।' __ सबसे अधिक प्रभाव उर्दू भापा ने आचार्यश्री पर डाला। पंजाव व उत्तर भारत में उर्दू ही प्रचलित होने से विजय वल्लभने इस का खूब प्रयोग किया। उर्दू में विजयवल्लभ की संरचनाएं इतनी सरस हैं कि पद के बोल कानों में अमृत घोलते हैं।
... नहीं सानी तेरा कोई, लिया जग ढूँढ सारा है .... खुदी से नाथ तू न्यारा, खुदी ने जग सताया है
खुदी के दूर करने को, मुझे तेरा सहारा है ... अनलहक सच्चिदानंदी, बिला तास्सुब निहारा है
૭૪ - ૧ભી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો