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लक्ष्य, उपलब्धि और देन आचार्य विजयवल्लभने राष्ट्र और समाज को एक एसी नई दृष्टि दी, जिससे नव चेतना और अंतर-ऊर्जा का विस्फोट हुआ। समता भावने जाति और सम्प्रदायवाद की दीवारों को तोडा। राष्ट्र की एकता के लिओ धर्म-सद्भाव का जयघोष हुआ। राष्ट्रीय, सामाजिक और क्रांतिकारी शैक्षणिक अभियान उनके महान आचार्यत्व के परिचायक है। वे अभाव पीडित जन समुदाय के लिओ करूणा के अपार पारावार की भाँति थे। संयम, साधना, तपस्या, मानवसेवा, समाजसुधार, अछूतोद्धार, शिक्षाप्रसार एवं देशप्रेम उनकी उज्जवल मानवीयता के ही दो पहलू थे। ज्ञान, प्रेम और करुणा की तीनों नदियां विजयवल्लभ के हृदय में आन मिली थी।
अपनी एक विज्ञप्ति में उन्होंने लिखा कि 'गुरुदेव श्री विजयानंदसूरिजी के द्वारा बख्शी हुई ‘मुनि' उपाधि के सिवा अन्य कोई उपाधि मेरे नाम के साथ कोई भी महाशय न लिखा करें।'
____ पुनश्चः २-२-१९४९ को जैन श्वेताम्बर कोनफ्रेंस के फालना अधिवेशन में जैन समाज आप को 'शासन सम्राट' 'युग प्रधान' आदि पद से विभूषित करना चाहता था। उस प्रस्ताव को विनम्रतापूर्वक ठुकराते हुओ कहा - 'क्षमा करना। आज देश की ओर दृष्टिपात करो। पीडित भाई बहिनों को देखो। देश और समाज के इन विपम हालात में मुझे अपनी आचार्य पदवी भी भारी पडती है। आप मुझे पद नहीं, काम दें।'
वे भोलीभाली जनता को मिथ्या-दृष्टि ठगों से बचाने के लिओ अपनी कृतियों - "भीम ज्ञान त्रिंशका', 'गप्प दीपिका समीर' और 'जवाबदावा' में पाखण्डियों के झूठ और मिथ्या अंधकार पर कठोर प्रहार करते हुए, भारतीय वाङ्मय पर अपने अधिकार का भी परिचय देते हैं। _ 'व्यसनों से राष्ट्र को बचाइये' - यह एक घण्टे का प्रवचन श्री विजयवल्लभसूरिजीने महाराष्ट्र सरकार की ओर से आयोजित विशाल सभा में दिया था। तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मोरारजी देसाई इस के सभापति थे। आपने कहा था -
ये सात व्यसन राष्ट्र के शत्रु हैं। इन व्यसन-शत्रुओं का हमारे राष्ट्र पर हमला हो रहा है। सामान्य शत्रु तो शरीर का नाश करता है, किंतु ये शत्रु हमारे राष्ट्र के शरीर, मन-बुद्धि और आत्मा पर हमला करते हैं और धीरे-धीरे इन्हें गुलाम बनाकर नाश कर देते हैं। इसलिओ शत्रु-राष्ट्रों की अपेक्षा ये व्यसन रूपी दुश्मन अधिक जबरदस्त हैं।'
देशभक्ति आज शायद यह अंदाजा लगा पाना भी मुश्किल होगा, कि एक जैनाचार्य अपने आचार और कर्तव्यों के प्रति पूर्ण जागरूक रहते हुओ देश की आजादी के
आचार्यश्री विजयवल्लमसूरि व्यक्तित्व-कवि-काव्य + ६५