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प्रस्तावना
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पद्मपुराण (१४-५६) में श्रमण उन्हें कहा गया है जो सब प्रकार के परिग्रह से रहित होकर घोर तपश्चरण में निरत होते हुए तत्त्व के चिन्तन में परायण रहते हैं। ऐसे श्रमणों को उत्कृष्ट पात्र समझना चाहिये।
भ. पाराधना की विजयोदया टीका (७१), सूत्रकृ. की शीलांक विरचित वृत्ति (२, ६, ४) और योगशास्त्र के स्वो. विवरण (३-१३०) में लगभग समान रूप से 'श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः, इस प्रकार की निरुक्तिपूर्वक यह कहा गया है कि जो तपश्चरण में तत्पर रहता है उसे श्रमण कहा जाता है। ध्ययन (८५६) में कहा गया है कि जो भ्रान्ति से श्रान्त नहीं होता उसे श्रमण जानना चाहिये। 'भिक्ष' को श्रमण का ही पर्यायवाची समझना चाहिए। सूत्रकृतांग (१, १६, ३) और उत्तराध्ययन (१५, १ से १६) में इसी प्रकार के अनेक महत्त्वपूर्ण विशेषणों द्वारा भिक्ष की विशेषता प्रगट की गई है (देखिये 'भिक्ष' शब्द)।
सत्य--यह दस प्रकार के धर्म तथा पांच प्रकार के अणुव्रत और पांच प्रकार के महाव्रत के अन्तर्गत है । द्वादशानुप्रेक्षा में (७४) इसके स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो वचन दूसरों के सन्ताप का कारण न होकर स्व और पर के लिये हितकर हो उसका नाम सत्य है । सत्यधर्म का धारक भिक्ष ऐसे ही वचन को बोलता है। स. सिद्धि (ह-६) और त. वातिक (8, ६,६) आदि में कहा गया है कि प्रशस्त जनों के मध्य में जो साधु (उत्तम या निरवद्य) वचन बोला जाता है उसे सत्य कहते हैं।
त. भाष्य (६.६) में इसके लक्षण का निर्देश करते हुए 'सत्यार्थे भवं वचः सत्यम्, सद्भ्यो वा हितं सत्यम्' इस प्रकार की निरुक्ति के साथ कहा गया है कि जो वचन यथार्थ वस्तु को विषय करता है अथवा सत्पुरुषों के लिए हितकर होता है उसका नाम सत्य है। वह असत्यता, कठोरता, पिशुनता, असभ्यता, चपलता, कलुषता और भ्रान्ति से रहित होता हुआ मधुर, अभिजात-कुलीनता का सूचक, असंदिग्ध, स्पष्ट, औद र्य गण से सहित, ग्राम्य दोष से रहित और राग-द्वेष से मुक्त होता है। इसके अतिरिक्त आगमानुसार प्रवृत्त होने वाला वह वचन यथार्थ, श्रोता जनों के लिये अभिप्राय के ग्रहण कराने में समर्थ, अपना व दूसरों का अनुग्राहक, उपाधि से रहित, देश-काल के योग्य, निर्दोष, जैनागम में प्रशस्त, संयत, मित, वाचन, पृच्छन और प्रश्न के अनुसार समाधान करनेवाला होता है । वसुदेवहिंडी (पृ. २६७) में सत्यवचन उसे कहा गया है जो भावतः विशुद्ध, यथार्थ, अहिंसा से अनुगत तथा पिशुनता व कठोरता से रहित होता है।
___ भ. प्रा. की विजयोदया टीका (५७) में असत् (असमीचीन) वचन से विरत होने को सत्य कहा गया है । यह तत्वार्थसूत्र का (७-१४) का अनुसरण है ।
मुलाचार (५-१११) में भाषा समिति के प्रसंग में सत्य वचन के ये दस भेद निदिष्ट किये गये हैंजनपद, सम्मत, स्थापना, नाम, रूप, प्रतीत्य, सम्भावना, ब्यवहार, भाव और प्रौपम्य सत्य । आगे वहाँ (५,,११२-१६) सोदाहरण पृथक्-पृथक् उनके लक्षणों का भी निर्देश कर दिया गया है। इनसे बहुत कुछ मिलते जुलते उस सत्य वचन के दस ही भेद सत्यप्रवाद पूर्व के प्रसंग में त. वार्तिक (१, २०, १२) में भी उपलब्ध होते हैं जैसे--नाम, रूप, स्थापना, प्रतीत्य, संवति, संयोजना, जनपद, देश, भाव और समय सत्य । यहां भी उनके पृथक्-पृथक् लक्षण निर्दिष्ट किये गये हैं। पूर्वोक्त मूलाचार के समान उसके वे दस भेद योग मार्गणा के प्रसंग में गो. जीवकाण्ड (२२१-२३) में भी उदाहरणपूर्वक कहे गये हैं।
___असत्य-पूर्वोक्त सत्य का प्रतिपक्षी अनृत या असत्य है। तत्त्वार्थसूत्र (७-१४) में इसके पर्याय वाची 'अन्त' शब्द का उपयोग करते हुए असत् वचन के बोलने को अन्त कहा है। उसकी व्याख्या करते हुए स. सिद्धि आदि में 'सत्' शब्द को प्रशंसावाची मानकर 'असत्' का अर्थ अप्रशस्त किया गया है। ऋत का अर्थ सत्य और अन्त का अर्थ असत्य है। त. भाष्य (७-६) में असत् शब्द से सद्भाव के प्रतिषेध, अर्थान्तर और गर्दा को ग्रहण किया गया है । इनका विशेष विचार प्रस्तुत जैन लक्षणावली के प्र. भाग की प्रस्तावना पृ. ७६ में 'कान्त'क अन्तर्गत किया जा चुका है।
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