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:३५: उदय : धर्म-दिवाकर का
॥ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ |
शीला बहन है। तुमने इतना महत्त्वपूर्ण पद पाया है। यह कुत्सित कर्म और नत्य-गान तुम्हारे लिए अनुचित है, नारी के माथे पर कलंक है। सदाचरण और सात्विकवत्ति से इस कलंक को
धो डालो। मेहनत-मजदूरी से भी पेट का पालन हो सकता है, धार्मिक तथा सात्त्विक जीवन बिताओ।"
वेश्याओं ने आपके उद्बोधन से प्रभावित होकर सात्त्विक जीवन अपना लिया। मेहनत मजदूरी करके पेट भरने लगीं। नारकीय जीवन से उद्धार पाकर वे सात्त्विक व सदाचारमय जीवन बिताने लगीं।
जहाजपुर में एक दिन जागीरदार साहब ने किले में प्रवचन का प्रबन्ध कराया। व्याख्यान से प्रभावित होकर जागीरदार साहब ने ३० बकरों को जीवनदान दिया। यहाँ से टोंक होते हुए आप सवाई माधोपुर पधारे।
खटीकों में जागरण यहाँ तीस खटीकों ने हिंसा कृत्य बन्द कर दिया तथा खेती और मजदूरी करके जीवनयापन करने लगे। कई वर्षों बाद उन्होंने अपने हार्दिक उद्गार व्यक्त किये
"जब हम लोग हिंसा कर्म करते थे तो हमारा गुजारा भी नहीं हो पाता था, पेट भी बड़ी कठिनाई से भरता था, लेकिन जब से हिंसा छोड़ी है तब से हम सभी प्रकार से सुखी हैं। हमारे जीवन में अब मुख-शांति है। गुरुदेव की कृपा से हमारा जीवन सुधर गया है।" - इसके बाद जब आप भीलवाड़ा पधारे तो वहाँ ३५ खटीक परिवारों ने हिंसात्मक धन्धाबन्द करके अहिंसा की शरण ली। इसी प्रकार स्थानीय माहेश्वरी समाज भी आपके प्रवचनों से प्रभावित हुआ । वर्षों से चले आये मतभेद भुलाकर वे भी परस्पर प्रेम-सूत्र में बंध गये ।
इस समय आगरा श्रीसंघ ने सेवा में उपस्थित होकर चातुर्मास की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना स्वीकार हई । आपश्री यहां से विहार करके श्यामपर होते हए गंगापर पधारे । कछ की अरुचि देखकर वहाँ श्मशान के पास बनी छतरियों में ही ठहर गए । गाँव में स्थानकवासी जैन एक ही परिवार था। उसे महाराजश्री का आगमन ज्ञात हुआ तो तुरन्त सेवा में पहुँचा। गांव में पधारने की प्रार्थना करने लगा। लेकिन तब तक दिन का चौथा पहर बीत चुका था । साधुमर्यादा के अनुसार महाराजश्री गमन नहीं कर सकते थे। कड़कड़ाती ठंड पड़ रही थी। वह श्रावक चटाई आदि बाँधने लगा जिससे कि शीत का प्रकोप कुछ तो कम हो सके। महाराजश्री ने मना करते हुए कहा
"भाई | इस प्रबन्ध की कोई जरूरत नहीं। हरिण, खरगोश आदि तो बिल्कूल ही निर्वस्त्र रहते हैं।"
और आपने वह रात्रि कड़ाकड़ाती ठंड में चारों ओर से खुली छतरियों में ही बिताई । प्रातःकाल ग्राम में पधारे । दिगम्बर जैन धर्मशाला में ठहरे । फिर श्रावक से पूछा
"भाई व्याख्यान कहाँ देना है ?"
"कहीं भी प्रवचन दे दीजिए महाराज ! सुनने वाले तो हम पिता-पुत्र दो ही है ।" बेचारा श्रावक अचकचाकर बोला।
. "माई । घबराओ मत । कहावत है-दो तो दो सौ से भी ज्यादा हैं।" महाराजश्री ने आत्म-विश्वास भरे स्वर में कहा और बाजार में उसकी दूकान पर बैठकर ही प्रवचन देना शुरू किया। मंगलाचरण होते ही कुछ लोग और आ गए । प्रवचन चलने लगा, श्रोता समूह बढ़ने लगा।
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