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श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
श्री जैन दिवाकरजी के प्रिय पद्य : ४४२ :
लपर-लपर बोल क्षण पल में, दे तू राड़ कराई ए। पंचों में तू काज बिगाड़े, गाँव में फूट पडाई ए।६। लाल बाई और फूल बाई, यह दो नाम है थारा ए। मान बड़ाई की बात करीने, जन्म बिगाड़ा ए ७। पर का मर्म प्रकाशे तू तो, अहोनिशि करे लपराई ए। साधु सतियों से तू नहीं चूके, करे बुराई ए।८। मत बोले, बोल तो मोके, मन में खूब विचारी ए। प्रिय बोले मर्म रहित तू, मान निवारी ए।।। सूत्र के अनुसारे बोल्या, सर्व जीव सुख पावे ए। महावीर भगवान कहे वह, मोक्ष सिधावे ए ।१०। असत्य और मिश्र भाषा, वीर प्रभ ने वरजी ए। 'चौथमल' कहे सत्य व्यवहार, भाष मुनिवरजी ए ।११।
१०. दया दिग्दर्शन
(तर्ज-लावनी अष्टपदी) दया को पाले है बुद्धिमान, दया में क्या समझे हैवान ।टेर। प्रथम तो जैन धर्म माही, चौवीस जिन राज हुए भाई।
मुख्य जिन दया ही बतलाई, दया बिन धर्म कह्यो नाई ।। दोहा-धर्मरुची करुणा करी, नेमनाथ महाराज। मेघरथ राजा परे वो शरणे, रखकर सार्या काज ।।
हुए श्री शान्तिनाथ भगवान ।१। दूसरा विष्णु मत मुझार, हुए श्रीकृष्णादिक अवतार ।
गीता और भागवत कीनी, और वेदों में दया लीनी ।। दोहा-दया सरीखो पुण्य नहीं, अहिंसा परमोधर्म । सर्व मत और सर्व ग्रन्थ में यही धर्म का मर्म ।।
देख लो निज शास्त्र धर ध्यान ।२। तीसरा मत है मुसलमान, खोलकर देखो उनकी कुरान ।
रहम नहीं है जिनके दिल दरम्यान, उसी को बेरहम लो जान ॥ दोहा-कहते मुहम्मद, मुस्तफा, सुन लेना इन्सान। दुःख देवेगा किसी जीव को, वो ही दोजख की खान ।
_____ मार जहाँ मुद्गल की पहचान ।३। लानत है उसी मत तांई, कि जिसमें जीव दया नाहीं । जीव रक्षा में पाप कहवे, दुःख ये दुर्गति का सहवे ॥
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