Book Title: Jain Divakar Smruti Granth
Author(s): Kevalmuni
Publisher: Jain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar

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Page 623
________________ श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ मेवाड़ पट्टावली में यही तिथि वीर संवत् २०२३ दी गई है । २८ जो वि० सं० १५५३ होती है । यह तिथि विचारणीय है क्योंकि इसके पूर्व उनके स्वर्गवास होने के प्रमाण प्राप्त होते हैं । अस्तु यह तिथि त्रुटिपूर्ण प्रतीत होती है । खम्भात पट्टावली के अनुसार ४५ व्यक्तियों को भागवती जैन दीक्षा वि० सं० १५३१ में सम्पन्न हुई । २१ प्राचीन पट्टावली में भी तिथि १५३१ मिलती है । चूंकि अधिक संख्या में तिथि सं० १५३१ प्राप्त होती है, इसलिए हमें भी यही तिथि स्वीकार करने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिए । जिन ४५ व्यक्तियों ने लोंकाशाह से प्रभावित होकर दीक्षा ग्रहण की उसके पूर्व की घटना का रोचक विवरण श्री विनयचन्द्रजी कृत पट्टावली में मिलता है । हमारे लिए भी यह एक विचारणीय प्रश्न है कि बिना किसी बात के संघ के लोगों को किस आधार पर लोंका शाह ने धर्म सन्देश दिया अथवा उचित-अनुचित की ओर ध्यान आकर्षित किया। जब हम उक्त विवरण पढ़ते हैं तो हमारे सामने सम्पूर्ण स्थिति स्पष्ट हो जाती है और तब इस बात का औचित्य प्रमाणित हो जाता है कि क्यों लोकाशाह ने धर्म सन्देश फरमाया । तो आप भी उन विवरण को देखिये चिन्तन के विविध बिन्दु : ५६४ : "अरहट्टवाड़ा के सेठ श्रावक लखमसींह ने तीर्थयात्रा के लिए एक विशाल संघ निकाला | साथ में वाहन रूप में कई गाड़ियों और सेजवाल भी थे। धर्म के निमित्त द्रव्य खर्च करने की उनमें बड़ी उमंग थी । रास्ते में अतिवर्षा होने के कारण संघपति ने पाटन नगर में संघ ठहरा दिया और संघपति प्रतिदिन लोकाशाह के पास शास्त्र सुनने जाने लगे और सुनकर मन ही मन बड़े प्रसन्न होने लगे । एक दिन संघ में रहे हुए भेषधारी यति ने संघपति से कहा- संघ को आगे क्यों नहीं बढ़ाते ? इस पर संघपति ने उनको समझाकर कहा - 'महाराज ! वर्षा ऋतु के कारण मार्ग में हरियाली और कोमल नवांकुर पैदा हो गये हैं तथा पृथ्वी पर असंख्य चराचर जीव उत्पन्न हो गए हैं । पृथ्वी पर रंग-बिरंगी लीलण - फूलण भी हो गई है, जिससे संघ को आगे बढ़ाने से रोक रहे हैं । वर्षा ऋतु में जमीन जीवसंकुल बन जाती है, अतः ऐसे समय में अनावश्यक यातायात वर्जित हैं ।' संघपति के करुणासिक्त वचन सुनकर भेषधारी बोले कि 'धर्म के काम में हिंसा भी हो, तो कोई दोष नहीं है ।' यति की बात सुनकर संघपति ने कहा कि 'जैनधर्म में ऐसी पोल नहीं है । जैनधर्म दया-युक्त एवं अनुपम धर्म है । मुझे आश्चर्य है कि तुम उसे हिंसाकारी अधर्म रूप कहते हो ।' संघपति ने यति से आगे कहा कि -- 'तुम्हारे हृदय में करुणा का लेश भी नहीं है, जिसको कि अब मैंने अच्छी तरह देख लिया है। ए ! भेषधारी संभलकर वचन बोल ।' संघपति की यह बात सुनकर वह भेषधारी यति पीछे लौट गया । लोकाशाह के उपदेश से प्रभावित होकर संघपति ने पैंतालीस व्यक्तियों के साथ स्वयं मुनिव्रत स्वीकार किया। उनमें भानजी, नूनजी, सखोजी और जगमालजी अत्यन्त दयालु एवं विशिष्ट सन्त थे । उन पैंतालीस में ये चार प्रमुख थे और जो शेष थे वे भी सच्चे अर्थों में निश्चित रूप से उत्तम पुरुष थे । उन्होंने जप, तप आदि क्रिया करके सम्यक् प्रकार से गुण भण्डार जिनधर्म को दिपाया। Jain Education International २८ पट्टावली प्रबन्ध संग्रह, पृष्ठ २६० २६ वही, पृष्ठ २०२ ३० वही, पृष्ठ १८२ ३१ वही, पृष्ठ १३६ से १४१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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