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:५६५ : धर्मवीर लोकाशाह
श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
श्री लोकाशाह की विशेष प्रेरणा से ये दीक्षाएँ हुई थी अत: इसी स्मृति में यहाँ पर समस्त मुनियों के संगठन का नाम लोंकागच्छ रखा गया । ३२
यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जिन लोकाशाह की प्रेरणा से पैंतालीस व्यक्तियों ने मुनिव्रत स्वीकार किया, क्या उन लोकाशाह ने स्वयं मुनिव्रत स्वीकार किया था अथवा नहीं ? इस सम्बन्ध में दो विचारधाराएं प्रचलित हैं-एक मत यह स्वीकार करता है कि लोंकाशाह ने मुनिधर्म स्वीकार किया था तथा दूसरा मत इसके विपरीत कहता है कि लोंकाशाह ने दीक्षा नहीं ली थी। अस्तु हम संक्षेप में दोनों मतों का अध्ययन करना उचित समझते हैं--
स्वर्ण जयन्ती ग्रन्थ में लिखा है कि लोकाशाह की आगम मान्यता को अब बहुत अधिक समर्थन मिलने लगा था। अब तक तो वे अपने पास आने वालों को ही समझाते और उपदेश देते थे, परन्तु जब उन्हें विचार हुआ कि क्रियोद्धार के लिए सार्वजनिक रूप से उपदेश करना और अपने विचार जनता के समक्ष उपस्थित करना आवश्यक है, तब उन्होंने वैशाख शुक्ला ३ संवत् १५२६ ता०११-४-१४७३ से सरेआम सार्वजनिक उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया। इनके अनुयायी दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगे। स्वभावतः ये विरक्त तो थे ही किन्तु अब तक कुछ कारणों से दीक्षा नहीं ले सके। जबकि क्रियोद्धार के लिए यह आवश्यक था कि उपदेशक पहले स्वयं आचरण करके बताये अतः मिगसर शुक्ला-५ सं० १५३६ को ज्ञानजी मुनि के शिष्य सोहनजी से आपने दीक्षा अंगीकार कर ली । अल्प समय में ही आपके ४०० शिष्य और लाखों श्रावक आपके श्रद्धालु बन गये । मरुधर पट्टावली के अनुसार लोकाशाह ने दीक्षा ली थी। दरियापुरी सम्प्रदाय पट्टावली ने उन्हें ४६वें आचार्य के रूप में बताया है और लिखा है, "केटलाक कहे छ के लोंकाशाहे थे । सं० १५०६ मी पाटण मा सुमतिविजय पासे दीक्षा लीधी अने लक्ष्मीविजय नामधारण करी ४५ जणा ने दोक्षा ग्रहण करावी । अने केटलाक कहे छे के दीक्षा ग्रहण करी नथी अने संसार मां रहीने ४५ जणा ने दीक्षा अपावी ।"३५ इस प्रकार यहाँ हम देखते हैं कि इस मत को मानने वालों में ही अन्तविरोध दिखाई देता है। क्योंकि एक स्थान पर उनके दीक्षागुरु का नाम श्री सोहन मुनिजी मिलता है तो दूसरे स्थान पर सुमतिविजय मिलता है। इसमें वास्तविकता क्या है ? निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है । यद्यपि पट्टावलियों के भी प्रमाण हैं ।
दूसरे मतानुसार विद्वान् उन्हें गृहस्थ ही स्वीकार करते हैं। उनके पास अनेक प्राचीन पट्टावलियों के प्रमाण हैं जिनमें लोंकाशाह को गृहस्थ स्वीकार किया गया है । वि० सं० १५४३ के लावण्यसमय कवि ने अपनी चौपाइयों में स्पष्ट लिखा है कि लोकाशाह पौषध, प्रतिक्रमण तथा पच्चक्खाण नहीं करता था । वह जिन-पूजा, अष्टापद तीर्थ तथा प्रतिमा प्रसाद का भी विरोध करता था। इससे यह तो स्पष्ट होता है कि यदि श्री लोकाशाह दीक्षित होते तो उन पर पौषध आदि क्रियाओं के न करने का आरोप न लगाया जाता। कुछ भी हो, भले ही उन्होंने द्रव्यरूप से दीक्षा न ग्रहण की हो पर उनके भाव तो दीक्षारूप ही थे। वे एक आदर्श गृहस्थ थे । उनका जीवन
३२ हमारा इतिहास, पृष्ठ ६८-६९ ३३ वही, पृष्ठ ४० ३४ पट्टावली प्रबंध संग्रह, पृष्ठ २५५ ३५ वही, पृष्ठ २६६
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