Book Title: Jain Divakar Smruti Granth
Author(s): Kevalmuni
Publisher: Jain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar

View full book text
Previous | Next

Page 628
________________ : ५६६ : श्री जैन दिवाकरजी महाराज की गुरु-परम्प श्री जैन दिदाकर-स्मृति-न्य | श्री जैन दिवाकरजी महाराज की गुरु-परम्परा 4 मधुरवक्ता श्री मूलमुनि जी दर्शन, सिद्धान्त तथा विचार की दृष्टि से जैन-परम्परा अनादि है, शाश्वत है। किन्तु व्यक्ति की दृष्टि से प्रत्येक परम्परा का आदिसूत्र भी होता है। वर्तमान उत्सपिणी में जैन श्रमण परम्परा के आदिकर्ता तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेव माने गये है। इन्हीं की पवित्र परम्परा में २४वें तीर्थकर श्रमण भगवान महावीर थे। वर्तमान में विश्व में जहाँ भी जैन श्रमण या श्रावक विद्यमान है, उन सबके परमाराध्य-पुरुष भगवान महावीर हैं तथा अभी सभी श्रमण महावीरवंशीय कहलाते हैं। भगवान महावीर के पट्टशिष्य थे सुधर्मा स्वामी। वर्तमान पट्टावली (गुरु परम्परा) की गणना उन्हीं के क्रम से की जाती है। सुधर्मा स्वामी के पश्चात् कुछ सौ वर्ष के बाद गुरु-परम्परा में शाखा-प्रशाखाएं निकलनी प्रारम्भ हई जो आज तक भी निकलती जा रही है। श्री स्थानकवासी मान्यता के अनुसार भगवान महावीर निर्वाण के एक हजार वर्ष बाद श्रमण-परम्परा में क्रमशः शिथिलता बढ़ती गई। आचार-विचार की शुद्धता से हटकर श्रमणवर्ग भौतिक सुख-सुविधा यश-वैभव की ओर मुड़ गया। लगभग १६वीं शताब्दी में वीर लोकाशाह ने आचार क्रांति का बिगुल बजाया जिससे प्रेरणा पाकर भाणाजी ऋषि ने पुनः शुद्ध-श्रमण परम्परा की विच्छिन्न कड़ी को जोड़ा। हमारी गणना के अनुसार भाणाजी ऋषि भगवान महावीर के ६२वें पाट पर होते है । उनके पश्चात् शुद्ध श्रमण-परम्परा में ७२वें पाट पर (हमारी परम्परा के अनुसार) श्री दौलतरामजी स्वामी हुए । श्री दौलतरामजी स्वामी से गुरुदेव श्री चौथमलजी महाराज तक की परम्परा का वर्णन यहाँ प्रस्तुत है। इस परम्परा-पट्टावली में संभवत: अन्य परम्परा (गुर्वावली) वालों का मतभेद भी हो सकता है, हमने अपनी गुरु-अनुश्रुति के अनुसार यहाँ उल्लेख किया है। पूज्य श्री दौलतरामजी महाराज पूज्य श्री दौलतरामजी महाराज ने लगभग १३ वर्ष की अल्पायु में ही फाल्गुन शुक्ला ५ को दीक्षा ली थी। आप काला पीपल ग्राम के बघेरवाल जाति के थे। पूज्य श्री दौलतरामजी महाराज पूज्यश्री हुक्मीचन्दजी महाराज के दादा गुरु थे। आप अत्यन्त ही समर्थ विद्वान् एवं सूत्र सिद्धान्त के पारगामी थे। इनका विचरण क्षेत्र कोटा, बूंदी, मेवाड़, मालवा आदि था। आप एक बार विचरते हुए देहली पधारे । वहाँ के शास्त्रज्ञ श्रावक श्री दलपतसिंहजी से शास्त्रों का अध्ययन करने की जिज्ञासा प्रकट की। श्री दलपतसिंहजी ने कहा कि वे 'दसवैकालिकसूत्र' का अध्ययन करायेंगे। इस पर आपने अन्य शास्त्रों का अध्ययन कराने का भी अनुरोध किया। किन्तु श्री दलपतसिंहजी सहमत नहीं हुए। जब आप वहाँ से विहार करके अलवर पहुंचे तब आपके मन में विचार आया कि आखिर श्री दलपतसिंहजी ने 'दसवैकालिकसूत्र' पर ही विशेष बल क्यों दिया ? इसमें अवश्य कोई रहस्य होना चाहिए । आप पुनः देहली पधारे और श्री दलपतसिंहजी से कहा, आप जो चाहें सो पढ़ाएँ। मुझे कोई आपत्ति नहीं है। इस प्रकार आपने श्री दलपतसिंहजी से "दसर्वकालिकसूत्र" के साथ-साथ अन्य ३२ सूत्रों का अध्ययन भी किया। उनके असाधारण ज्ञान-सम्पत्ति की प्रशंसा पूज्य श्री अजरामरजी महाराज ने सुनी। पूज्य श्री अजरामरजी स्वामी का आगमतेर ज्ञान भी बहुत बढ़ा-चढ़ा था। फिर भी आगम-ज्ञान प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680