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श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
चिन्तन के विविध बिन्दु : ५६२ :
"लोकाशाह न तो विद्वान था और न आपके समकालीन कोई आपके मत में ही विद्वान् हआ । यही कारण है कि लोंकाशाह के समकालीन किसी के अनुयायी ने लोंकाशाह का जीवन नहीं लिखा, इतना ही नहीं पर लोंकाशाह के अनुयायियों को यह भी पता नहीं था कि लोकाशाह का जन्म किस ग्राम में, किस कुल में हुआ था; किस कारण से उन्होंने संघ में भेद डाल नया मत खड़ा किया तथा लोंकाशाह के नूतन मत के क्या सिद्धांत थे इत्यादि । १७ जन्मस्थान, जन्मतिथि, कुल आदि कुछ ऐसी बातें हैं जो लोकाशाह ही नहीं अनेक जैनाचार्यों की भी नहीं मिलती अथवा मिलती हैं तो विवादास्पद हैं। इसलिए इन सबके लिए मैं यहाँ कुछ लिखना उचित नहीं समझता है। हाँ, इतना अवश्य कहूँगा कि आज भी देश में एक विशाल समुदाय उनको मानता है। वे भले ही एक सामान्य पुरुष रहे हों किन्तु उनकी असाधारणता इसी में है कि श्री ज्ञानसुन्दर मुनिजी ने अपने ग्रन्थ में लोंकाशाह की जन्मतिथि, जन्मस्थान, जाति तथा नवीन मत आदि पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया है । और इस प्रकार लेखक महोदय ने स्वयं ही लोकाशाह का न केवल महत्त्व स्वीकार किया है वरन् एक ऐतिहासिक पुस्तक (भले ही विरोधी) लिखकर उन्हें प्रसिद्ध और लोकप्रिय किया है।
गच्छवासी लोग उनके विविध दोष बतलाते और उनका विरोध करते । समाज में यह भ्रांति फैलाई जाने लगी कि लोंकाशाह पूजा, पौषध और दान आदि नहीं मानता। विरोधभाव से इस प्रकार के कई दोष विरोधियों द्वारा लगाये गये किन्तु वास्तव में लोंकाशाह धर्म का या व्रत का नहीं; अपितु धर्मविरोधी ढोंग आडम्बर का निषेध करते थे। उनका मत था कि हमारे देव वीतराग एवं अविकारी हैं अतः उनकी पूजा भी उनके स्वरूपानुकूल ही आडम्बररहित होनी चाहिए ।
विरोधी लोगों का यह कथन कि लोकाशाह व्रत, पौषध आदि को नहीं मानता; मात्र धर्मप्रेमी जनसमुदाय को बहकाने के लिए था। वास्तव में लोकाशाह ने व्रत या तप का नहीं किन्तु धर्म में आये हए बाह्य क्रियावाद यानि आडम्बर आदि विकारों का ही विरोध किया था। जैसा कि कबीर ने भी अपने समय में बढ़ते हुए मूर्तिपूजा के विकारों के लिए जनसमुदाय को ललकारा था। यही बात लों का शाह ने भी कही थी। वीतराग के स्वरूपानुकूल निर्दोष भक्ति से उनका कोई विरोध नहीं था।
लोकाशाह ने दया, दान, पूजा और पौषध की करणी में आडम्बर एवं उजमणा आदि की प्रणाली को ठीक नहीं माना । उन्होंने कर्मकाण्ड में आये हुए विकारों का शोधन किया और सर्वसाधारणजन भी सरलता से कर सकें, वैसी निर्दोष प्रणाली स्वीकार की। उन्होंने पूजनीय के सद्गुणों की ही पूजा को भवतारिणी माना । आरम्भ को धर्म का अंग नहीं माना, क्योंकि पूर्वाचार्यों ने "आरम्भेण नित्थ क्या" इस वचन से हिंसा रूप आरम्भ में दया नहीं होती, यह प्रमाणित किया ।२०
१७ श्रीमान् लोकाशाह, पृष्ठ २ १८ श्री जैन आचार्य चरितावली, पृष्ठ ८५ १६ वही, पृष्ठ ८५ २० वही, पृष्ठ ८६
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