Book Title: Jain Divakar Smruti Granth
Author(s): Kevalmuni
Publisher: Jain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar

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Page 620
________________ :५६१: धर्मवीर लोकाशाह || श्री जैन दिवाकर-स्मृति-वान्थ ये गच्छधारी साधु कल्याण रूप अहिंसा के मार्ग को त्याग कर, मूढ़तावश हिंसा में धर्म मानने लगे हैं । इस प्रकार लोकाशाह के मन में आश्चर्य हुआ । उन्होंने दशवकालिक सूत्र की दो प्रतियां लिखीं। उस प्रतापी लोकाशाह ने उन लिखित दो प्रतियों में से एक अपने घर में रखी और दूसरी भेषधारी यति को दे दी। इसी तरह लिखने को अन्यान्य सूत्र लाते रहे और एक प्रति अपने पास रख कर दूसरी यति को पहुंचाते रहे। इस प्रकार उन्होंने सम्पूर्ण बत्तीस सूत्रों को लिख लिया और परमार्थ के साथ-साथ शास्त्र-ज्ञान में प्रवीण बन गए। इसी समय भस्मग्रह का योग भी समाप्त हआ और वीर निर्वाण के दो हजार वर्ष भी पूरे होने को आये । संवत् १५३१ में धर्मप्राण लोकाशाह ने धर्म का शुद्ध स्वरूप समझकर लोगों को समझाया कि साधु का धर्ममार्ग अत्यन्त कठिन अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पंच महाव्रत वाला है। मुनिधर्म की विशेषता बताते हुए उन्होंने कहा कि-पांच समिति और तीन गुप्ति की जो आराधना करते हैं, सत्रह प्रकार के संयम का पालन करते हैं, हिंसा आदि अठारह पापों का भी सेवन नहीं करते और जो निरवद्य भंवर-मिक्षा ग्रहण करते हैं, वे ही सच्चे मनि हैं । जो बयालीस दोषों को टालकर गाय की तरह शुद्ध आहार-पानी ग्रहण करते हैं, नव बाड़ सहित पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं तथा बारह प्रकार की तपस्या करके शरीर को कृश करते हैं, इस प्रकार जो शुद्ध व्यवहार का पालन करते हैं, उन्हें ही उत्तम साधु कहना चाहिए। आज के जो मतिविहीन मूढ़ भेषधारी हैं वे लोभारुढ़ होकर हिंसा में धर्म बताते हैं। इसलिए इन भेषधारी साधुओं की संगति छोड़कर स्वयंमेव सूत्रों के अनुसार धर्म की प्ररूपणा करने लगे। लोकाशाह ने मन में ऐसा विचार किया कि सन्देह छोड़कर अब धर्म-प्रचार करना चाहिए।"१५ । मन्दिरों, मठों और प्रतिमाग्रहों को आगम की कसौटी पर कसने पर उन्हें मोक्ष-मार्ग में कहीं पर भी प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा का विधान नहीं मिला। शास्त्रों का विशुद्ध ज्ञान होने से अपने समाज की अन्ध-परम्परा के प्रति उन्हें ग्लानि हुई । शुद्ध जैनागमों के प्रति उनमें अडिग श्रद्धा का आविर्भाव हुआ। उन्होंने दृढ़तापूर्वक घोषित किया कि-"शास्त्रों में बताया हुआ निम्रन्थ धर्म आज के सुखाभिलाषी और सम्प्रदायवाद को पोषण करने वाले कलुषित हाथों में जाकर कलंक की कालिमा से विकृत हो गया है । मोक्ष की सिद्धि के लिए मूर्तियों अथवा मन्दिरों की जड़ उपासना की आवश्यकता नहीं है किन्तु तप, त्याग और साधना के द्वारा आत्म-शुद्धि की आवश्यकता है।" अपने इस दृढ़ निश्चय के आधार पर उन्होंने शुद्ध शास्त्रीय उपदेश देना प्रारम्भ किया । भगवान महावीर के उपदेशों के रहस्य को समझकर उनके सच्चे प्रतिनिधि बनकर ज्ञान-दिवाकर धर्मप्राण लोकाशाह ने अपनी समस्त शक्ति को संचित कर मिथ्यात्व और आडम्बर के अन्धकार के विरुद्ध सिंहगर्जना की। अल्प समय में ही अद्भुत सफलता मिली। लाखों लोग उनके अनुयायी बन गये । सत्ता के लोलुपी व्यक्ति लोकाशाह की यह धर्मक्रान्ति देखकर घबरा गये और यह कहने लगे कि “लोकाशाह नाम के एक लहिये ने अहमदाबाद में शासन के विरोध में विद्रोह खड़ा कर दिया है। इस प्रकार उनके विरोध में उत्सूत्र प्ररूपणा और धर्म-भ्रष्टता के आक्षेप किये जाने लगे।"१६ इसी तारतम्य में मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज का लोकाशाह विषयक कथन दृष्टव्य है, १५ पट्टावली प्रबन्ध संग्रह, पृष्ठ १३४ से १३६ १६ स्वर्ण जयन्ती ग्रन्थ, पृष्ठ ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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