Book Title: Jain Divakar Smruti Granth
Author(s): Kevalmuni
Publisher: Jain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar

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Page 619
________________ श्री जैन दिवाकर. म्मृति ग्रन्थ चिन्तन के विविध बिन्दु : ५६० : लगभग विशेष सम्भव है कि अहमदाबाद में लेखन-कार्य करते हुए कुछ विशेष अशुद्धि आदि के कारण उनके साथ बोलचाल हो गई । वैसे व्याख्यानादि श्रवण द्वारा जैन-साध्वाचार की अभिज्ञता तो थी ही और यति-महात्माओं में शिथिलाचार प्रविष्ट हो चुका था। इसलिए जब यतिजी ने विशेष उपालम्भ दिया तो रुष्ट होकर उनका मान भंग करने के लिए उन्होंने कहा कि शास्त्र के अनुसार आपका आचार ठीक नहीं है एवं लोगों में उस बात को प्रचारित किया। इसी समय पारख लखमसी उन्हें मिला और उसके संयोग से यतियों के आचार शैथिल्य का विशेष विरोध किया गया। जब यतियों में साधु के गुण नहीं हैं तो उन्हें वन्दन क्यों किया जाय ? कहा गया । तब यतियों ने कहा-'वेष ही प्रमाण है। भगवान की प्रतिमा में यद्यपि भगवान के गुण नहीं फिर भी वह पूजी जाती है।' तब लुका ने कहा कि-'गुणहीन मूर्ति को मानना भी ठीक नहीं और उसकी पूजा में हिंसा भी होती है। भगवान ने दया में धर्म कहा है।' इस प्रकार अपने मत का प्रचार करते हुए कई वर्ष बीत गये। सं० १५२७ और सं० १५३४ के बीच विशेष सम्भव सं० १५३०-३१ में भाणां नामक व्यक्ति स्वयं दीक्षित होकर इस मत का प्रथम मुनि हुआ। इसके बाद समय के प्रवाह से यह मत फैल गया।"१७ विनयचन्द्रजी कृत पट्टावली का विवरण भी उल्लेखनीय है। उसके अनुसार, “एक दिन गच्छधारी यति ने विचारा और भण्डार में से सारे सूत्रों को बाहर निकालकर संभालना प्रारम्भ किया तो देखा कि सत्रों को उदई चाट गई है और तब से वे सोच करने लगे। उस समय गुजरात प्रदेशान्तर्गत अहमदाबाद शहर में ओसवाल वंशीय लोकाशाह नाम के दफ्तरी रहते थे। एक दिन लोकाशाह प्रसन्नतापूर्वक उपाश्रय में गुरुजी के पास गए तो वहाँ साधु ने कहा कि-"श्रावकजी सिद्धांत लिखकर उपकार करो। यह संघ सेवा का काम है।" लोकाशाह ने यतिजी से सारा वृत्तांत सुनकर कहा कि-"आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।" और सबसे पहले दशवकालिक की प्रति लेकर अपने घर चले गये। प्रतिलिपि करते समय लोकाशाह ने जिनराज के वचनों को ध्यान से पढ़ा। पढ़कर मन में विचार किया कि वर्तमान गच्छधारी सभी साध्वाचार से भ्रष्ट दिखाई देते हैं । लोकाशाह ने लिखते समय विचार किया कि यद्यपि ये गच्छधारी साधु अधर्मी है तथापि अभी इनके साथ नम्रता से ही व्यवहार करना चाहिए । जब तक शास्त्रों की पूरी प्रतियां प्राप्त नहीं हो जाती तब तक इनके अनुकूल ही चलना चाहिए। ऐसा विचार कर उन्होंने समस्त आलस्य का त्याग कर दो-दो प्रतियाँ लिखनी प्रारम्भ की। वीतराग-वाणी (सूत्र) को पढ़कर उन्होंने बड़ा सुख माना और तन, मन, वचन से अत्यन्त हर्षित हुए। __ अपने लेखन के संयोग को उन्होंने पूर्वजन्म का महान् पुण्योदय माना तथा उसी के प्रभाव से तत्त्व-ज्ञान रूप अपूर्व वस्तु की प्राप्ति को समझा। दशवकालिक सूत्र के प्रथम अध्ययन की प्रथम गाथा में धर्म का लक्षण बताते हुए भगवान ने अहिंसा, संयम और तप को प्रधानता दी है। दशवकालिक सूत्र के प्रथम अध्ययन की प्रथम गाथा इस प्रकार है धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो। देवावि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥१॥ लोकाशाह यह पढ़कर अत्यन्त प्रसन्न हुए। १४ श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ, पृष्ठ ४७५-७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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