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:४८७ : सदाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैनधर्म
मैं अधर्म को भी जानता हूँ परन्तु उससे निवृत्त नहीं होता हूँ। अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि किसी आचरण का सदाचार या दुराचार होना इस बात पर निर्भर नहीं है कि वह किसी वर्ग या समाज द्वारा स्वीकृत या अस्वीकृत होता रहा है। सदाचार और दुराचार की मूल्यवत्ता उनके परिणामों पर या उस साध्य पर निर्भर होती है, जिसके लिए उनका आचरण किया जाता है । आचरण की मूल्यवत्ता, स्वयं आचरण पर ही नहीं, अपितु उसके साध्य या परिणाम पर निर्भर होती है । किसी आचरण की मूल्यवत्ता का निर्धारण उसके समाज पर पड़ने वाले प्रभाव के आधार पर भी किया जाता है, फिर भी उसकी मूल्यवत्ता का अन्तिम आधार तो कोई आदर्श या साध्य ही होता है। अत: जब हम सदाचार के मानदण्ड की बात करते हैं तो हमें उस परम मूल्य या साध्य पर ही विचार करना होगा जिसके आधार पर किसी कर्म को सदाचार या दुराचार की कोटि में रखा जाता है। वस्तुतः मानव-जीवन का परम साध्य ही वह तत्व है, जो सदाचार का मानदण्ड या कसोटी बनता है। पाश्चात्य आचार दर्शनों में सदाचार और दुराचार के जो मानदण्ड स्वीकृत रहे हैं उन्हें मोटे-मोटे रूप से दो भागों में बांटा जाता है-१. नियमवादी और २. साध्यवादी। नियमवादी परम्परा सदाचार और दुराचार का मानदण्ड सामाजिक अथवा धार्मिक नियमों को मानती है, जबकि साध्यवादी परम्परा सुख अथवा आत्म-पूर्णता को ही सदाचार और दुराचार की कसौटी मानती है।
पाश्चात्य नीतिशास्त्र में सदाचार के मानदण्ड के सिद्धान्त
नियमवादी
साध्यवादी
साध्यवादी
बाह्य नियम
आन्तरिक नियम बौद्धिक नियम
अन्तरात्मा के आदेश
आत्मपूर्णतावाद
सामाजिक नियम
राजकीय नियम
ईश्वरीय नियम सुखवाद (शास्त्रीय नियम) (भोगवाद)
बुद्धिवाद (वैराग्यवाद)
वैयक्तिक सुखवाद (स्वार्थवाद)
सामाजिक सुखवाद (परार्थवाद) या उपयोगितावाद
ऐन्द्रिक सुखवाद
मानसिक सुखवाद जैन-दर्शन में सवाचार का मापदण्ड
अब मूल प्रश्न यह है कि वह परम मूल्य या चरम साध्य क्या है ? जैन-दर्शन मानव के चरम साध्य के बारे में स्पष्ट है । उसके अनुसार व्यक्ति का चरम साध्य मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति है। वह यह मानता है कि जो आचरण निर्वाण या मोक्ष की दिशा में ले जाता है, वही सदाचार की कोटि में आता है। दूसरे शब्दों में जो आचरण मुक्ति का कारण है वह सदाचार है और जो आचरण बन्धन का कारण है, वह दुराचार है। किन्तु यहाँ पर हमें यह भी स्पष्ट करना होगा कि
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