________________
: ५१५ : कर्म : बन्धन एवं मुक्ति की प्रक्रियाएं
कर्म का बन्ध वैभाविक परिणति (राग-द्वेष) से होता है, और जब तक आत्मा में मोह-कर्म का उदय-भाव रहता है, तब तक प्रति समय कर्म का बन्ध होता रहता है। आत्मा पूर्व में आबद्ध कर्म के विपाक का प्रति समय वेदन करता है, और वह कर्म अपना फल देकर आत्म-प्रदेशों से अलग हो जाता है और नये कर्मों का बन्ध हो जाता है। इस प्रकार प्रवाह की दृष्टि से कर्म का प्रवाह अनादि से चला आ रहा है। हम यह नहीं कह सकते कि यह कर्म-प्रवाह आत्मा के साथ कब से आ रहा है । वैभाविक परिणति से कर्म बंधते हैं और कर्म के कारण मोह, राग-द्वेष आदि विभाव जागृत होते हैं । जैसे अण्डे से मुर्गी निकलती है, और मुर्गी से अण्डा उत्पन्न होता है । यह नहीं कहा जा सकता कि अण्डा पहले अस्तित्व में आया या मुर्गी। दोनों का यह पारस्परिक सम्बन्ध अनादि काल से चला आ रहा है। इसी प्रकार आत्मा और कर्म का प्रवाह रूप से संयोग सम्बन्ध अनादि काल से है, परन्तु एक ही कर्म अनादि काल से नहीं है। प्रतिक्षण बँधने वाले कर्म की आदि है और उसका बन्ध कितने समय का है अथवा वह कितने काल तक सत्ता में रहेगा, उसकी स्थिति का बन्ध भी उसके रस के बन्ध के साथ हो जाता है और वह कब उदय में आकर फल देगा, यह भी स्थिति के अनुरूप निश्चित हो जाता है, इसलिए प्रतिक्षण बँधने वाले कर्म की आदि भी है और उसका अन्त भी है। इसी कारण जैन-दर्शन इस बात को मानता है कि आबद्ध कर्म को तोड़ा भी जा सकता है । आत्मा राग-द्वेषमय विभाव-धारा में बहता है, तब कर्म बाँधता है, और राग-द्वेष का क्षय करके वीतरागभाव अथवा स्वभाव में परिणत होता है, तब वह उससे मुक्त हो सकता है।
अस्तु, कर्म-प्रवाह की भले ही आदि न हो, परन्तु समय-समय पर बंधने वाले कमों की आदि है, इसलिए आत्मा उनसे मुक्त भी हो सकता है । प्रतिक्षण आत्मा पुराने कर्मों से छुटकारा पाता भी है-भले ही उसी क्षण नये कर्मों को बांध ले, इससे यह कहना नितान्त गलत है कि वह बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता। भले ही कर्म-बन्ध अनादि से है, परन्तु संवर और निर्जरा की अथवा वीतरागभाव की साधना से उनका अन्त किया जा सकता है।
बन्ध के कारण
आगम-वाङमय में कर्म-बन्ध का मूल कारण राग-द्वेष को माना है। योग-मन, वचन और काय-योग में जब स्पन्दन होता है, क्रिया होती है, गति होती है, तब कार्मण-वर्गणा के पुद्गल आते हैं । कर्म के आने के द्वार को आस्रव कहा है । इसलिए शुभ-योग अथवा शुभ-प्रवृत्ति और अशुभ-योग अथवा अशुभ-प्रवृति दोनों कर्म के आगमन का द्वार हैं। इससे कर्म आते अवश्य हैं, परन्तु केवल योगों की प्रवृत्ति से उनका आत्म-प्रदेशों के साथ बन्ध नहीं होता। आगमों में प्रकृति-बन्ध, प्रदेशबन्ध, अनुभाग (रस) बन्ध और स्थिति-बन्ध यह चार प्रकार का बन्ध बताया है । आस्रव से आने वाले कर्म ज्ञानावरण आदि किस प्रकृति (स्वभाव) के हैं और उनके अनन्त परमाणुओं से निर्मित स्कन्ध कितने प्रदेश के हैं-यह दो प्रकार का बन्ध योगों में होने वाले स्पन्दन एवं प्रवृत्ति से होता है। परन्तु वे शुभ या अशुभ, तीव्र या मन्द किस तरह के रस के हैं और कितने काल तक आत्मप्रदेशों को आवृत कर रहने वाले हैं, यह बन्ध प्रवृत्ति के साथ राग-द्वेषात्मक परिणामों से होता है और इसी को आगम में बन्ध कहा है। इस दृष्टि से आगम में राग-द्वेष अथवा कषाय और योग को बन्ध का हेत कहा है। इसी का विस्तृत रूप है--मिथ्यात्व, अवत, प्रमाद, कषाय और योग, ये पांच भेद । राग-द्वेष या कषाय मिथ्यात्व गुणस्थान (प्रथम गुणस्थान) से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org