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: ५३१ : मिथ्यात्व और सम्यक्त्व : एक तुलनात्मक विवेश्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
का वपन किया। मेरी अपनी दृष्टि में आगम एवं पिटक ग्रन्थों के संकलन एवं लिपिबद्ध होने तक यह सब कुछ हो चका था। अत: आगम और पिटक ग्रन्थों में सम्यकदर्शन के इन सभी अर्थों की उपस्थिति उपलब्ध होती है। वस्तुत: सम्यकदर्शन का भाषाशास्त्रीय विवेचन पर आधारित यथार्थ दृष्टिकोणपरक अर्थ ही उसका प्रथम एवं मूल अर्थ है, लेकिन यथार्थ दृष्टिकोण तो मात्र वीतराग पुरुष का ही हो सकता है, जहाँ तक व्यक्ति राग और द्वेष से युक्त है उसका दृष्टिकोण यथार्थ नहीं हो सकता । इस अर्थ को स्वीकार करने पर यथार्थ दृष्टिकोण तो साधनावस्था में सम्भव नहीं होगा क्योंकि साधना की अवस्था सरागता की अवस्था है। साधक-आत्मा में तो राग और द्वेष दोनों की उपस्थिति होती है, साधक तो साधना ही इसलिए कर रहा है कि वह इन दोनों से मुक्त हो, इस प्रकार यथार्थ दृष्टिकोण तो मात्र सिद्धावस्था में होगा। लेकिन यथार्थ दृष्टिकोण की आवश्यकता तो साधक के लिए है, सिद्ध को तो वह स्वाभाविक रूप में प्राप्त है । यथार्थ दृष्टिकोण के अभाव में व्यक्ति का व्यवहार एवं साधना सम्यक नहीं हो सकती अथवा अयथार्थ दृष्टिकोण ज्ञान और जीवन के व्यवहार को सम्यक नहीं बना सकता है। यहाँ एक समस्या उत्पन्न होती है । यथार्थ दृष्टिकोण का साधनात्मक जीवन में अभाव होता है और बिना यथार्थ दृष्टिकोण के साधना हो नहीं सकती। यह समस्या हमें ऐसी स्थिति में डाल देती कि जहाँ हमें साधना-मार्ग की सम्भावना को ही अस्वीकृत करना होता है। यथार्थ दृष्टिकोण के बिना साधना सम्भव नहीं और यथार्थ दृष्टिकोण साधना-काल में हो नहीं सकता।
लेकिन इस धारणा में एक भ्रान्ति है, वह यह कि साधना मार्ग के लिए, दृष्टिकोण की यथार्थता के लिए, राग-दोष से पूर्ण विमुक्त दृष्टि का होना आवश्यक नहीं है, मात्र इतना आवश्यक है कि व्यक्ति अयथार्थता को जाने और उसके कारण जाने । ऐसा साधक यथार्थता को नहीं जानते हुए भी सम्यकदृष्टि ही है, क्योंकि वह असत्य को असत्य मानता है और उसके कारण को जानता है अतः वह भ्रान्त नहीं है, असत्य के कारण को जानने के कारण वह उसका निराकरण कर सत्य को पा सकेगा। यद्यपि पूर्ण यथार्थ दृष्टि तो एक साधक व्यक्ति में सम्भव नहीं है, फिर भी उसकी राग-द्वेषात्मक वृत्तियों में जब स्वाभाविक रूप से कमी हो जाती है तो इस स्वाभाविक परिवर्तन के कारण पूर्वानुभूति और पश्चानुभूति में अन्तर ज्ञात होता है और इस अन्तर के कारण के चिन्तन में उसे दो बातें मिल जाती हैं-एक तो यह कि उसका दृष्टिकोण दूषित है और उसकी दृष्टि की दूषितता का अमुक कारण है। यद्यपि यहाँ सत्य तो प्राप्त नहीं होता लेकिन अपनी असत्यता और उसके कारण का बोध हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप उसमें सत्याभीप्सा जाग्रत हो जाती है। यही सत्याभीप्सा उसे सत्य या यथार्थता के निकट पहुंचाती है और जितने अंश में वह यथार्थता के निकट पहुंचता है उतने ही अंश में उसका ज्ञान और चारित्र शुद्ध होता जाता है । ज्ञान और चारित्र की शुद्धता से पुनः राग और द्वेष में क्रमशः कमी होती है और उसके फलस्वरूप उसके दष्टिकोण में और अधिक यथार्थता आ जाती है। इसी प्रकार क्रमशः व्यक्ति स्वतः ही साधना की चरम स्थिति में पहुँच जाता है। आवश्यकनियुक्ति में कहा गया है कि जल जैसे-जैसे स्वच्छ होता जाता है त्यों-त्यों द्रष्टा उसमें प्रतिबिम्बित रूपों को स्पष्टतया देखने लगता है उसी प्रकार अन्तर में ज्यों-ज्यों तत्त्वरुचि जाग्रत होती है त्यों-त्यों तत्त्व-ज्ञान प्राप्त होता जाता है।" इसे जैन परिभाषा में प्रत्येकबुद्ध (स्वतः ही यथार्थता को जानने वाले) का साधना-मार्ग कहते हैं ।
३६ देखिए स्थानांग ५।२ उद्धृत-आत्म-साधना संग्रह, पृ० १४३ ३७ आवश्यकनियुक्ति ११६३
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