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: ५२६ : मिथ्यात्व और सम्यक्त्व : एक तुलनात्मक विवेत्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
सत्य की अभीप्सा है। दूसरे शब्दों में, इसको सत्य के प्रति जिज्ञासावृत्ति या मुमुक्षत्व भी कहा जा सकता है। अपने दोनों ही अर्थों में सम्यकदर्शन या सम्यक्त्व नैतिक जीवन के लिए आवश्यक है। जैन नैतिकता का चरम आदर्श आत्मा के यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि है, लेकिन यथार्थ को उपलब्धि भी तो यथार्थ से सम्भव होगी. अयथार्थ से तो यथार्थ पाया नहीं जा सकता । यदि साध्य यथार्थता की उपलब्धि है तो साधन भी यथार्थ ही चाहिए । जैन विचारणा साध्य और सावन की एकरूपता में विश्वास करती है । वह यह मानती है कि अनुचित साधन से प्राप्त किया लक्ष्य भी अनुचित ही है, वह उचित नहीं कहा जा सकता । सम्यक् को सम्यक् से ही प्राप्त करना होता है। असम्यक् से जो भी मिलता है, पाया जाता है, वह भी असम्यक् ही होता है । अतः आत्मा के यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि के लिए उन्होंने जिन साधनों का विधान किया उनका सम्यक् होना आवश्यक माना गय वस्तुतः ज्ञान, दर्शन और चारित्र का नैतिक मूल्य उनके सम्यक होने में समाहित है। जब ज्ञान, दर्शन और चारित्र सम्यक होते हैं तो वे मुक्ति या निर्वाण के साधन बनते हैं। लेकिन यदि वे ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र मिथ्या होते हैं तो बन्धन का कारण बनते हैं। बन्धन और मुक्ति ज्ञान, दर्शन और चारित्र पर निर्भर नहीं वरन् उनकी सम्यक्ता और मिथ्यात्व पर आधारित है । सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन और सम्यकचारित्र मोक्ष का मार्ग है जबकि मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्र ही बन्धन का मार्ग है।
आचार्य जिनभद्र की धारणा के अनुसार यदि सम्यक्त्व का अर्थ तत्त्वरुचि या सत्याभीप्सा करते हैं तो सम्यक्त्व का नैतिक साधना में महत्त्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है । नैतिकता की साधना आदर्शोन्मुख गति है लेकिन जिसके कारण वह गति है, साधना है, वह तो सत्याभीप्सा ही है। साधक में जब तक सत्याभीप्सा या तत्त्वरुचि जाग्रत नहीं होती तब तक वह नैतिक प्रगति की
ओर अग्रसर ही नहीं हो सकता । सत्य की चाह या सत्य की प्यास ही ऐसा तत्त्व है जो उसे साधना मार्ग में प्रेरित करता है । जिसे प्यास नहीं, वह पानी की प्राप्ति का क्यों प्रयास करेगा? जिसमें सत्य की उपलब्धि की चाह (तत्त्वरुचि) नहीं वह क्यों साधना करने लगा ? प्यासा ही पानी की खोज करता है । तत्त्वरुचि या सत्यामीप्सा से युक्त व्यक्ति ही आदर्श की प्राप्ति के निमित्त साधना के मार्ग पर आरूढ़ होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में सम्यक्त्व के भेदों का विवेचन करते हुए दोनों अर्थों को समन्वित कर दिया गया है। ग्रन्थकर्ता की दृष्टि में यद्यपि सम्यक्त्व यथार्थता की अभिव्यक्ति करता है लेकिन यथार्थता जिस ज्ञानात्मक तथ्य के रूप में उपस्थित होती है, उसके लिए सत्यामीप्सा या रुचि आवश्यक है।
दर्शन का अर्थ
दर्शन शब्द भी जैनागमों में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जीवादि पदार्थों के स्वरूप का देखना, जानना, श्रद्धा करना दर्शन कहा जाता है। सामान्यतया दर्शन शब्द देखने के अर्थ में व्यवहार किया जाता है लेकिन यहां पर दर्शन शब्द का अर्थ मात्र नेत्रजन्य बोध नहीं है। उसमें इन्द्रियबोध, मनबोध और आत्मबोध सभी सम्मिलित हैं। दर्शन शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में जैनपरम्परा में काफी विवाद रहा है । दर्शन शब्द को ज्ञान से अलग करते हुए विचारकों ने दर्शन को अन्तर्बोध और ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान कहा है। नैतिक जीवन की दृष्टि से विचार करने पर
३० अभि० रा०, खण्ड ५, पृष्ठ २४२५ ३१ सम प्राब्लम्स इन जैन साइकोलाजी, पृष्ठ ३२
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