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| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ||
चिन्तन के विविध बिन्दु : ५१४:
नाश होते ही आत्मा को अपने ब्रह्म-स्वरूप का बोध हो जाता है और वह यह जान लेता है कि भ्रम या अविद्या के कारण मैं अनादि काल से माया के साथ रहा, परन्तु वास्तव में मैं तो अनादिकाल से ब्रह्म ही था ।' सांख्य की भाषा में पुरुष-प्रकृति का भेद-ज्ञान नहीं होने से पुरुष अनादिकाल से संसार में आबद्ध रहा। जैन आगम एवं जैन-दर्शन भी इसी बात को मानते हैं कि जीव भी अनादि से है और पुद्गल भी अनादि से है । आत्मा को अपने स्वरूप का परिज्ञान न होने के कारण अज्ञान एवं मोहवश वह कर्म-पुद्गलों से आबद्ध होकर संसार में परिभ्रमण करता रहा। जब वह अज्ञान या मिथ्यात्व के आवरण को हटा देता है, मिथ्यात्व-ग्रन्थि (गांठ) का भेदन करके सम्यक्त्व को, सम्यक्-ज्ञान को अनावृत कर लेता है, तब उसे अपने स्वरूप का यथार्थ बोध हो जाता है। इससे वह यह जान लेता है, कि मैं शरीर, इन्द्रिय, मन एवं कर्म आदि सभी पौद्गलिक पदार्थों से सर्वथा भिन्न हैं। मैं अथवा आत्मा स्वरूप की दृष्टि से शुद्ध होते हुए भी कर्म से आबद्ध क्यों है, कर्मबन्ध का कारण क्या है और उससे मुक्त होने का साधन क्या है, इसका परिज्ञान हो जाता है और एक दिन वह समस्त कर्म-बन्धन एवं कर्मजन्य साधनों से सर्वथा मुक्त हो जाता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अनन्तकाल से अविच्छिन्न रूप से प्रवहमान इस धारा का आदिकाल किसी भी दार्शनिक को ज्ञात नहीं है। जो वस्तु अनन्त काल से है, उसकी आदि हो ही नहीं सकती। आदि सान्त की होती है, अनन्त की नहीं। इसलिए संसारी आत्मा अनादि से कर्म-पुद्गलों से आबद्ध है। अनादि-संयोग का अन्त कैसे ?
आत्मा और पुद्गल (कर्म) का संयोग अनादि से है, फिर वह अनन्त तक रहेगा ? जो वस्तु अनन्तकाल से है, जिसका आदिकाल है ही नहीं, उस अनन्त का अन्त भी नहीं होगा। अन्त उसी वस्तु का होता है, जिस वस्तु का आदिकाल निश्चित है। यदि संसारी-आत्मा अनादिकाल से कर्म से आबद्ध है, तो वह कभी मुक्त नहीं हो सकती ?
इसका समाधान श्रमण भगवान महावीर ने इस प्रकार किया कि आत्मा और पुद्गलदोनों स्वतन्त्र द्रव्य. हैं। दोनों अनादिकाल से हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे। ऐसा कोई भी क्षण नहीं रहा कि आत्मा का अस्तित्व न रहा हो, नहीं है और नहीं रहेगा। यही बात पुद्गल के सम्बन्ध में है। आत्मा और कर्म-पुद्गल का संयोग सम्बन्ध होने पर भी दोनों का अस्तित्व स्वतन्त्र है । आत्मा से सम्बद्ध रहने पर भी आत्मा के असंख्यात प्रदेशों में से एक भी प्रदेश पुद्गल रूप में परिणत नहीं होता और पुद्गलों का एक भी परमाणु चेतन रूप में परिणत नहीं होता । दोनों के साथ रहने पर भी आत्मा की परिणति चेतन रूप में होती है, और पुद्गल की परिणति पुद्गल (जड़) रूप में होती है। दोनों एक-दूसरे से सम्बद्ध दिखाई देने पर भी एक-दूसरे के रूप में समाहित नहीं होते । जैसे लोहे के गोले को आग में डालने पर अग्नि के परमाणु उसमें इतने एकाकार परिलक्षित होते हैं कि वह लोहे का नहीं, आग का गोला-सा दिखाई पड़ता है। परन्तु लोहे के परमाणु अलग हैं और अग्नि के संयोग से आये हुए आग के परमाणु उससे अलग हैं। दोनों परमाणु पुद्गल हैं, फिर भी उस गोले को आग से बाहर निकालकर कुछ देर पड़ा रहने दें, तो ठण्डा होने पर आप देखेंगे कि आग के परमाणु शान्त हो जाते हैं, और वह लोहे का गोला ही रह जाता है। जैसे अग्नि के परमाणु लोहे से भिन्न हैं, इसी प्रकार पुद्गल के संयोग से आत्मा और पुद्गलों से निर्मित शरीर एक दिखाई देते हैं, परन्तु वस्तुतः दोनों एक-दूसरे के स्वरूप एवं स्वभाव से सर्वथा भिन्न हैं। दोनों में होने वाली परिणति भी पृथक्-पृथक् होती है । इसलिए उनका पृथक् होना सम्भव है ।
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