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श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
चिन्तन के विविध बिन्दु : ५१२ :
करता है कि वह तो अनादिकाल से ब्रह्म ही था, मुक्त ही था । वास्तव में बन्धन मानसिक भ्रम है, सत्तागत नहीं । इसलिए बन्धन केवल व्यावहारिक दृष्टिकोण से ही सत्य है । पारमार्थिक सत्य यह है कि जीव न कभी बन्धन में पड़ता है और न कभी मोक्ष को प्राप्त करता है। आचार्य शंकर का कहना है कि जिस प्रकार रज्जू-सर्व भ्रम को केवल ज्ञान द्वारा ही दूर किया जा सकता है, कर्म अथवा क्रिया इस भ्रम को दूर करने में जरा भी सहायक नहीं होती, उसी प्रकार मोक्ष भी जो ब्रह्म एवं जगत् का भ्रम दूर होना है, केवल ज्ञान से ही प्राप्त किया जा सकता है, कर्म से नहीं ।"
जैन दर्शन आत्मा को सत्य मानता है, परन्तु वह जगत् को मिथ्या नहीं मानता। नानात्व से परिपूर्ण यह जगत् या लोक भी सत्य है। इस लोक में आत्मा का अस्तित्व है और आत्मा के स्वरूप से सर्वथा भिन्न पुद्गल का, जड़ का अस्तित्व भी है। भले ही आत्मा एवं पुद्गल का अथवा चेतन और जड़ का, या पुरुष और प्रकृति का अथवा ब्रह्म और माया का अथवा जीव और कर्म का संयोग सम्बन्ध अथवा आत्मा का कर्म के साथ आबद्ध होना अज्ञान (अविद्या) के कारण हुआ है, परन्तु इतना तो मानना ही होगा कि जिसके बन्धन में आत्मा आबद्ध है, उसका अस्तित्व है, और मुक्त होने के बाद भले ही आत्मा के साथ उसका सम्बन्ध न रहे, पर जगत् में उसका अस्तित्व रहेगा ही । केवल भ्रम कहने मात्र से किसी वस्तु की सत्ता समाप्त नहीं हो जाती । रज्जू में सर्प के भ्रम का तात्पर्य इतना ही है कि वह रज्जू सर्प नहीं है, परन्तु सर्प की सत्ता तो है, उसका अस्तित्व तो है। यदि उसका अस्तित्व ही नहीं होता, तो यह भ्रान्ति कैसे होती जैसे किसी भी व्यक्ति को स्वर - विषाण ( गधे की सींग) की भ्रान्ति नहीं होती। अस्तु यह नितान्त सत्य है कि मन, आत्मा नहीं है। शरीर भी आत्मा नहीं है, इन्द्रियां भी आत्मा नहीं हैं। आगम की भाषा में कहूँ, तो कर्म और नोकर्म भी आत्मा नहीं है । आत्मा से सम्बद्ध होने के कारण अज्ञानवश व्यक्ति उन पर-पदार्थों को अपना समझ लेता है, परन्तु सम्यक् ज्ञान होने पर वह उन्हें अपने स्वरूप से सर्वथा भिन्न समझता है। इसी को आगम में भेद विज्ञान कहा है। परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि आत्मा से भिन्न ये पदार्थ अथवा अनेक जड़ पदार्थों से परिपूर्ण यह जगत् या लोक सर्वथा मिथ्या है। जीव जड़ नहीं है, जैसे रज्जू सर्प नहीं है, इतना सत्य है । परन्तु सर्प सर्वथा मिथ्या है, जड़ जगत् सर्वथा मिथ्या है, उसका अस्तित्व ही नहीं है, यह अनुभूत सत्य को झुठलाना है । भ्रम या भ्रान्ति उसी वस्तु की होती है, जो उस वस्तु में नहीं है, परन्तु जिसका अस्तित्व है अवश्य, जैसे सूर्य के प्रकाश में चमकती हुई सीप में रजत (चांदी) की भ्रान्ति होती है सीप में रजत का अस्तित्व नहीं है, यह भ्रान्ति है, परन्तु रजत का अस्तित्व ही नहीं है, ऐसा नहीं कह सकते। जड़ को जीव मानना भ्रान्ति है, अज्ञान है जब तक यह अज्ञान (अविद्या) रहता है, तब तक आत्मा कर्म-बन्धन से मुक्त । नहीं होता। यह जड़ शरीर, इन्द्रियां एवं मन जीव नहीं है, आत्मा इनसे भिन्न है, यह बोध हो जाना और पर भाव एवं पर-स्वरूप से हटकर अपने स्वरूप को जान लेना सम्यक ज्ञान है भ्रान्ति का दूर हो जाना यह बन्धन से मुक्त होने का रास्ता है । परन्तु सम्यक् ज्ञान होने का यह अर्थ नहीं है कि जड़ पदार्थ एवं पुद्गलों का अस्तित्व ही मिट गया। उनके अस्तित्व से इन्कार करना, यही सबसे बड़ा अज्ञान है ।
ज्ञान से स्वरूप का बोध होता है और साधक यह जान लेता है कि मैं कर्म और नोकर्म
५ ईशावास्योपनिषद्, ५ शांकरभाष्य
६ कठोपनिषद् १, २, १४
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