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॥ श्री जैन दिवाकर-म्मृति-ग्रन्थ ।
चिन्तन के विविध बिन्दु : ४८६ :
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श्री जैन दिवाकर स्मृति-निबन्ध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त सदाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैनधर्म
4 डा० सागरमल जैन, एम० ए०, पी-एच. डी.
[दर्शन विभाग, हमीदिया महाविद्यालय, भोपाल ] सदाचार और दुराचार का अर्थ :
जब हम सदाचार के किसी शाश्वत मानदण्ड को जानना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें यह देखना होगा कि सदाचार का तात्पर्य क्या है और किसे हम सदाचार कहते हैं ? शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि से सदाचार शब्द सत्+आचार इन दो शब्दों से मिलकर बना है, अर्थात् जो आचरण सत् (Right) या उचित है वह सदाचार है । लेकिन फिर भी यह प्रश्न बना रहता है कि सत् या उचित आचरण क्या है ? यद्यपि हम आचरण के कुछ प्रारूपों को सदाचार और कुछ प्रारूपों को दुराचार कहते हैं किन्तु मूल प्रश्न यह है कि वह कौन-सा तत्त्व है जो किसी आचरण को सदाचार या दुराचार बना देता है। हम अक्सर यह कहते हैं कि झूठ बोलना, चोरी करना, हिंसा करना, व्यभिचार करना आदि दुराचार हैं और करुणा, दया, सहानुभूति, ईमानदारी, सत्यवादिता, आदि सदाचार हैं; किन्तु वह आधार कौन-सा है, जो प्रथम प्रकार के आचरणों को दुराचार और दूसरे प्रकार के आचरणों को सदाचार बना देता है। चोरी या हिंसा क्यों दुराचार है और ईमानदारी या सत्यवादिता क्यों सदाचार हैं ? यदि हम सत् या उचित के अंग्रेजी पर्याय राईट (Right) पर विचार करते हैं तो Right शब्द लेटिन शब्द Rectus से बना है, जिसका अर्थ होता है नियमानुसार; अर्थात् जो आचरण नियमानुसार है, वह सदाचार है और जो नियमविरुद्ध है, वह दुराचार है । यहाँ नियम से तात्पर्य सामाजिक एवं धार्मिक नियमों या परम्पराओं से है। भारतीय परम्परा में भी सदाचार शब्द की ऐसी ही व्याख्या मनुस्मृति में उपलब्ध होती है, मनु लिखते हैं
तस्मिन् देशे य आचारः पारम्पर्यक्रमागतः ।
वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते ॥ अर्थात् जिस देश, काल और समाज में जो आचरण परम्परा से चला आता है वही सदाचार कहा जाता है । इसका अर्थ यह हुआ कि जो परम्परागत आचार के नियम हैं, उनका पालन करना ही सदाचार है। दूसरे शब्दों में जिस देश, काल और समाज में आचरण की जो परम्पराएं स्वीकृत रही हैं, उन्हीं के अनुसार आचरण सदाचार कहा जावेगा। किन्तु यह दृष्टिकोण समुचित प्रतीत नहीं होता है। वस्तुतः कोई भी आचरण किसी देश, काल और समाज में आचरित एवं अनुमोदित होने से सदाचार नहीं बन जाता। .
कोई आचरण केवल इसलिए सत् या उचित नहीं होता है कि वह किसी समाज में स्वीकृत होता रहा है, अपितु वास्तविकता तो यह है कि इसलिए स्वीकृत होता रहा है क्योंकि वह सत् है। किसी आचरण का सत् या असत् होना अथवा सदाचार या दुराचार होना स्वयं उसके स्वरूप पर निर्भर होता है न कि उसके आचरित अथवा अनाचरित होने पर। महाभारत में दुर्योधन ने कहा था
जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः ।
जानामि अधर्म न च मे निवृत्तिः ॥ अर्थात् मैं धर्म को जानता हूँ किन्तु उस ओर प्रवृत्त नहीं होता, उसका आचरण नहीं करता।
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