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। श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ||
चिन्तन के विविध बिन्दु : ५०८:
बन्ध प्रकृति को होता है, और वही उससे मुक्त होती है । आत्मा कर्म-बन्ध से अलिप्त है। सांख्यदर्शन की दृष्टि से पुरुष (आत्मा) कर्ता नहीं है, कर्म का कर्ता है-प्रकृति । कुछ विचारक केवल एक ही तत्त्व को मूल-तत्त्व मानते हैं और वह है-ब्रह्म। उनके विचार से ब्रह्म ही सत्य है, उसके अतिरिक्त जगत्-जो प्रत्यक्ष में परिलक्षित होता है, मिथ्या है। हम जो कुछ देखते हैं, वह सब भ्रम है, विवर्त है, माया है। यह संसार मायारूप है, यथार्थ नहीं है। ब्रह्म का ज्ञान नहीं हुआ तब तक ही यह माया रूप संसार है । ब्रह्मज्ञान होते ही जीव, जीव नहीं रह जाएगा, वह ब्रह्म में विलीन हो जाएगा। इस प्रकार अद्वैतवाद के संस्थापक आचार्य शंकर के विचार से ब्रह्म के अतिरिक्त कर्म, कर्म-बन्धन और उसका विपाक सब मिथ्या है, भ्रम है और माया है। न्याय और वैशेषिक दर्शन द्वैतवाद को मानते हैं, शुभाशुभ कर्म को एवं उसके विपाक (फल) को भी मानते हैं। परन्तु उनके विचार से आत्मा का शुद्ध स्वरूप जड़-सा है। वे आत्मा में ज्ञान-चेतना मानते अवश्य हैं, परन्तु वह आत्मा का स्वभाव नहीं, बाहर से आगत गुण है। जब तक ज्ञान रहता है, तभी तक सारे संघर्ष, जन्म-मरण, दुःख-सुख हैं। इसलिए ज्ञान से मुक्त होना ही मुक्ति है। उनके विचार से मुक्ति या मोक्ष में ज्ञान-चेतना नहीं रहती। ज्ञान-चेतना का अभाव यही तो जडता है। जहाँ व्यक्ति की अनन्त-चेतना-शक्ति जाग्रत होने के स्थान में नष्ट हो जाती है, ऐसी मुक्ति कौन चाहेगा?
बौद्ध-दर्शन आत्मा को क्षणिक मानता है-'सर्व अनित्यं, सर्व क्षणिकं-यह उसका मूल सूत्र है। जिस क्षण जो आत्म-चेतना कर्म करती है, बन्ध से आबद्ध होती है, दूसरे क्षण वह नहीं, उसकी सन्तति दूसरी आत्मा जन्म ले लेगी। इस तरह कोई भी वस्तु नित्य नहीं है, जो कुछ दिखाई देता है, वह उसकी सन्तति है। इसलिए कर्म करने वाला आत्मा एक है, और उसके विपाक का वेदन करने वाला दूसरा । यह कभी सम्भव ही नहीं होता कि कर्म करे कोई और उसका फल भोगे दूसरा। जैन-दृष्टि से बन्ध-मोक्ष
जैन-दर्शन का इस सम्बन्ध में अपना स्वतन्त्र एवं मौलिक-चिन्तन है और कर्मदर्शन (KarmaPhilosophy) के सम्बन्ध में उसने वैज्ञानिक (Scientific) एवं मनोवैज्ञानिक (Psychological) पद्धति से विचार किया है। सर्वप्रथम यह दृष्टि पूर्णतः गलत है कि आत्मा कर्म का कर्ता नहीं है, जबकि वह फल का भोक्ता अवश्य है। यह अनुभवगम्य सत्य है कि जो कर्म करता है, वही फल का उपभोग करता है। कर्म अन्य करे और उसका फल वह न भोगकर कोई दूसरा ही भोगे, ऐसा कदापि हो नहीं सकता। दूसरी बात, जो कुछ दिखाई दे रहा है और प्रत्यक्ष है, उसे मिथ्या एवं भ्रान्ति कहना, यह भी सत्य को झुटलाना है। एक ओर यह कहना कि सृष्टि में मूल तत्त्व एक ही है, वह मूल तत्त्व ब्रह्म ही सत्य है, जगत् एकान्तत: मिथ्या है। जब तत्त्व केवल ब्रह्म ही है, तब सृष्टि-यह दूसरा तत्त्व आया कहाँ से । संसार माया एवं अविद्या के कारण है। जैन-दर्शन भी यह मानता है कि कर्म-बन्ध का कारण अज्ञान (अविद्या), राग-द्वप (मोह-माया) है, परन्तु वह ब्रह्म से भिन्न है। भले ही उसे माया कहें या कर्म-बन्ध कहें-चेतन (ब्रह्म) से भिन्न दूसरा जड़-तत्त्व, जिसे जैन-दर्शन पुद्गल कहता है, है अवश्य । द्वैत-भाव अर्थात् दो मूल तत्त्वों को माने बिना संसार का अस्तित्व रह ही नहीं सकता। तीसरी बात यह है कि ज्ञान आत्मा का गुण है, आत्मा का स्वभाव है। जैन-दर्शन की दृष्टि से आत्मा ज्ञानमय है, ज्ञान के अतिरिक्त वह अन्य कुछ नहीं है। ज्ञानमय
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