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: ४७५ : श्रुतज्ञान एवं मतिज्ञान : एक विवेचन
श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
श्रुतज्ञान एवं मतिज्ञान : एक विवेचन
* डा० हेमलता बोलिया सहायक शोध अधिकारी, साहित्य संस्थान, उदयपुर (राज० )
जिस प्रकार शब्द और अनुमान के सम्बन्ध में दार्शनिकों में मत वैभिन्न्य है उसी प्रकार जैनदार्शनिकों में भी श्रुतज्ञान और मतिज्ञान को लेकर मतैक्य का अभाव है । श्रुतज्ञान एवं मतिज्ञान दोनों में ही कार्य-कारण का सम्बन्ध है । दोनों ही जीव में साथ-साथ रहते हैं, परोक्ष हैं । इनका परस्पर स्वरूप इतना अधिक सम्मिश्रित है कि दोनों के मध्य विभाजन रेखा खींचना अत्यन्त कठिन है । इसके अतिरिक्त इसके मूल में सूत्रकार द्वारा किया हुआ लक्षण भी है । उमास्वाति ने अपने 'तत्त्वार्थसूत्र' में श्रुतज्ञान का लक्षण 'श्रुतं मतिपूर्वकम्" अर्थात् श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है, किया है । इस आधार पर कुछ जैनाचार्यों की मान्यता है कि श्रुतज्ञान मतिज्ञान का ही एक भेद है, स्वतन्त्र ज्ञान नहीं । सिद्धसेन का तो यहाँ तक कहना है कि श्रुतज्ञान को मतिज्ञान से भिन्न मानना ही व्यर्थ है ।
अतः श्रुतज्ञान मतिज्ञान से भिन्न एक स्वतन्त्र ज्ञान अथवा नहीं, यह जैन दार्शनिकों के लिए विचार का विषय बन गया है । इस सम्बन्ध में विचार करने से पूर्व दोनों के स्वरूप को पृथक्पृथक् जान लेना आवश्यक है क्योंकि स्वरूपज्ञान के अभाव में दोनों के परस्पर एकत्व और भिन्नत्व का ज्ञान नहीं हो सकता है ।
मतिज्ञान
सामान्यतः बुद्धि के माध्यम से जो ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं । वैसे भी 'मति' शब्द 'मन' धातु में 'क्तिन्' प्रत्यय लगने से निष्पन्न हुआ है । इसका अर्थ है बुद्धि, तर्क आदि । इस आधार पर भी तर्कपरक ज्ञान ही मतिज्ञान सिद्ध होता है । परन्तु जैन- दार्शनिकों ने इसकी विशिष्ट परिभाषाएँ दी हैं ।
मतिज्ञान क्या है ? इसका उत्तर देते हुए आचार्य गृद्धपिच्छ ने तत्त्वार्थसूत्र में कहा है कि 10, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध एक-दूसरे के पर्याय हैं— केवल प्रकृत्या भिन्न दिखाई देते हैं । हे ज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय व धारणा रूप से चार प्रकार का है ।
किन्तु गृद्धपिच्छ के इस लक्षण से मतिज्ञान का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता है । अपितु उसके पर्यायों तथा प्रकारों का ज्ञान होता है ।
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पंचसंग्रहकार का मत है कि परोपदेश के बिना जो विष, यन्त्र, कूट, पंजर तथा बन्ध आदि के विषय में बुद्धि प्रवृत्त होती है, उसे ज्ञानीजन मतिज्ञान कहते हैं ।
इन परिभाषाओं से मतिज्ञान का स्वरूप पूर्णतः स्पष्ट नहीं होता है । इसलिए एक दार्शनिक ने इसके स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए अपना मत व्यक्त किया है कि परार्थ तथा इन्द्रियों के सन्निकर्ष
१ तत्त्वार्थ सूत्र १।२०
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