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श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
श्री जैन दिवाकरजी के प्रिय पद्य : ४४६ :
हीरे पन्ने कण्ठी डोरे गले बीच लटकाते हैं बग्गी के बीच में बैठ शाम को हवाखोरी को जाते हैं । दया दान की जो कोई केवे तो केवे माल मुफ्त नहीं आते हैं । इसमें तो वो ही नर जाने जो कोई इसे कमाते हैं । चाहे हमें मूँजी कह देवो धर्म अर्थं तो आनी नहीं | चाहे |२| कोई कहे आज इन्द्र सभा है बैठक के दो रूपे हैं मोल । तो आगे कुर्सी रखना हमारी दो के सवा दो देंगे खोल । कोई कहे आज कसाई से गऊ के प्रान बचावें अमोल । यही दुकान देखी क्या तुमने, अबे कभी मत हमसे बोल । ज्यादा कहे मजहब को छोड़े और बात कर घनी नहीं | चाहे | ३ | ऐसे मूँजी कब धर्म दीपावे, कब जाति की रक्षा करे ।
मजाल है गगद्ध की, जो गज के सिर की झूल धरे । सभी मजा गये लूट जगत में, मूँजी धन-धन करते मरे । छोड़ नींद गफलत की प्राणी, आगे का नहीं फिकर करे । 'चौथमल' कहे तप धन सच्चा ऐसा जुग में धनी नहीं | चाहे | ४ |
१७. कर्म की विचित्रता
(तर्ज - हो पिऊ पेली पेसिंजर )
रे जीवा जावे तू मोटर कार में, थारा कर्म जावे पहिला तार में | टेर । भाग्यहीन नर मंदी लगावे, आई या तेजी बाजार में | १ | परदेश में जावे पापी कमावा, पीछे औरत मर गई बुखार में | २ | गहनों को डिब्बों गयो सटपट में, ऊँडो पड्यो है विचार में | ३ | जेब से बटुआ गायब हुआ है, ये तो रहा है तकरार में |४| लेणायत आ सभी सतावे, टोटो भी लागो व्यापार में | ५ | मौत माँगे पर भी नहीं आवे, दुःख मिले संसार में | ६ | 'चौथमुनि' कहे धर्म करे तो रहवेगा मंगलाचार में |७|
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