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श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
श्री जैन दिवाकरजी के प्रिय पद्म : ४४४ :
सत्यधारी हरिश्चन्द्र राजा ने बेची तारा नारी रे । आप रहे भंगी के घर पर, भरे नित वारी रे |४| सती अंजना को पीहर में राखी नहीं लगारी रे । हनुमान - सा पुत्र हुआ, जिनके बलकारी रे ||५| खन्दक जैसे मुनिराज की, देखो खाल उतारी रे । गजसुकुमाल सिर झार सही, समता उर धारी रे | ६ | सम्वत् उन्नीसे अस्सी साल, धम्मोत्तर सेखे कारी रे। गुरु प्रसादे 'चौथमल' कहे, दया सुखकारी रे ॥७॥ १३. तन का बंगला
(तर्ज- करने भारत का कल्याण)
तेरे रहने को रहवान, मिला तन बँगला आलीशान |टेर | हड्डी मांस चर्ममय सारा, तन है कैसा सुन्दर प्यारा । है यह तिमंजिला मकान | १| पाँव से लेकर कटि के तांई, पहला मंजिल है सुन भाई । जिसमें है मल का स्थान |२| कटि से ग्रीवा तक पहिचानो, इसमें है मशीन एक मानो । पचता जिसमें भोजन-पान | ३ | ग्रीवा से तीजा मंजिल सर, जिसमें बाबूजी का दफ्तर । टेलीफोन लगे दो कान |४| दुर्बीन है नैनों का प्यारा, वायु हित है नाक दुवारा । मुख से खाते हैं पकवान |५| लेकिन तुमको मिला किराये, जिसको पाकर क्यों बौराये । बैठे इसको अपना मान |६| जब भी हुकम मौत का आवे, बँगला खाली तुरत करावे । 'चौथमल' कहे भजो भगवान |७|
१४. उमरिया बीती जाय
(तर्ज - मारवाड़ी )
थारी सारी उमरिया, पापों में बीती जाय अब तो सोच रे |टेर |
धर्म बिना परभव में प्राणी, कहाँ जाकर
बेरंग चिट्ठी बिना नाम की, कौन इसे काले में धोले आ जावे, तो खटजावे धोले में गर धूल पड़ी तो, शोभा होगी
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ठहरेगा ।
झेलेगा । १ ।
भाई ।
नई |२|
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