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श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
अपेक्षा द्रव्य और पर्याय को सत् से भिन्न माना गया है, द्रव्य और पर्याय के एकांत भेद प्रतिपादन पर्यायादि को न मानकर
को व्यवहाराभास कहते हैं, जैसे चार्वाक् दर्शन । चार्वाक् लोग द्रव्य के केवल भूतचतुष्टय को मानते हैं अतः उन्हें व्यवहार मास कहा गया है। बहुल और लौकिक दृष्टि को लेकर चलता है ।
यह व्यवहारनय उपचार
बौद्ध लोग क्षण-क्षण में नाश होने वाली पर्यायों को ही वास्तविक मानकर पर्यायों के आश्रित द्रव्यों का निषेध करते हैं, इसलिए उनका मत ऋजुसूत्रनयाभास है । वस्तु के सर्वथा निषेध करने को ऋजुसूत्रनयामास कहते हैं । वर्तमान क्षण की पर्याय मात्र की प्रधानता से वस्तु का कथन करना ऋजुसूषनय है - जैसे इस समय मैं सुख की पर्याय भोगता हूँ।
परस्पर विरोधी लिंग, संख्यादि के भेद से वस्तु में भेद मानने को शब्दनय कहते हैं। वैयाकरण लोग शब्दनय आदि का अनुकरण करते हैं । कालादि के भेद से शब्द और अर्थ को सर्वदा अलग मानने को शब्दनयाभास कहते हैं । रूढ़ि से संपूर्ण शब्दों के एक अर्थ में प्रयुक्त होने को 'शब्दनय' कहते हैं।
रण
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चिन्तन के विविध बिन्दु : ४७२ :
समभिरूढनय पर्यायवाची शब्दों में भिन्न अर्थ को द्योतित करता है । भिन्न-भिन्न व्युत्पत्ति होने से पर्यायवाची शब्द भिन्न-भिन्न अर्थों के द्योतक हैं। पर्यायवाची शब्दों को सर्वथा भिन्न मानना समभिख्ठनयामास कहते हैं।
जिस समय व्युत्पत्ति के निमित्त रूप अर्थ का व्यवहार होता है उसी समय में शब्द में अर्थ का व्यवहार होता है अर्थात् जिस क्षण में किसी शब्द की व्युत्पत्ति का निमित्त कारण संपूर्ण रूप से विद्यमान हो, उसी समय उस शब्द का प्रयोग करना उचित है—यह एवंभूतनय की मान्यता है ।
नय से विषयीकृत वस्तु धर्म को अभेदवृत्ति प्राधान्य अथवा मेदोपचार से क्रमशः कहने वाला वाक्य - विकलादेश कहा जाता है । अर्थात् विकलादेश क्रमशः भेदोपचार से अथवा भेद प्राधान्य से अशेष धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन करता है क्योंकि उसको नयाधीनता है । प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार में देवेन्द्र सूरि ने कहा है
"इयं सप्तभंगी प्रतिभंगं सफलादेशस्वभावा विफलादेशस्वभावा चेति ।"
अर्थात् सप्तभंगी का एक-एक मंग सकलादेश स्वभाव की तरह विकलादेश स्वभाव भी स्वीकृत किया है । प्रमाण के सात भंगों की अपने विषय में विधि और प्रतिषेध की अपेक्षा नय के भी सात भंग होते हैं ।
नगमादि नयों में पहले-पहले नय अधिक विषय वाले हैं और आगे-आगे के नय परिमित विषय वाले हैं । संग्रहनय सत् मात्र को जानता है जबकि नैगमनय सामान्य और विशेष—- दोनों को जानता है इसलिये संग्रहनय की अपेक्षा नैगमनय का अधिक विषय है । व्यवहारनय संग्रह्नय से जाने हुए पदार्थों को विशेष रूप से जानता है जबकि संग्रह समस्त सामान्य पदार्थों को जानता है इसलिए संग्रहनय का विषय व्यवहारनय की अपेक्षा अधिक है । व्यवहारनय तीनों कालों के पदार्थों को जानता है और ऋजुसूत्रनय से केवल वर्तमान पर्याय का ज्ञान होता है अतः व्यवहारनय का विषय ऋजुसूत्रमय से अधिक है, इसी प्रकार शब्दनय से ऋसूत्रनय का समभिरूढ से शब्दनय का, और एवंभूतनय से समभिरूडनय का विषय अधिक है।
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नय वाक्यमपि स्वविषये प्रवर्तमानं विधिप्रतिषेधाभ्यां सप्तभंगीमनुव्रजति ।
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-प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, अ० ७
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