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: ४६१ : आत्मसाधना के निश्चयनय की उपयोगिता
श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
बार रटन किया जाएगा, जिसे पुनः-पुन: स्मरण किया जायगा, जिसका बार-बार चिन्तन-मनन किया जाएगा, वह धीरे-धीरे संस्कारों में बद्धमूल हो जाएगी। उदाहरण के तौर पर किसी व्यक्ति को क्रोध का त्याग करना है और वह बार-बार क्रोध का चिन्तन करता है, स्मरण करता है या उसकी ओर ध्यान देता है तो क्रोध हटने के बजाय और अधिक तीव्र हो जाएगा। क्रोध उसके संस्कारों के साथ घुल-मिल जाएगा । एक व्यक्ति शराब बहुत पोता था। उसकी पत्नी अपने पति की शराब की आदत पर उसे बहुत झिड़कती थी। परिवार के लोग भी उसकी शराब पीने की आदत के कारण उससे घृणा करते थे। अन्य लोग भी बार-बार उसे टोकते रहते थे। इस पर उसने शराब पीने का त्याग कर दिया। किन्तु उसी दिन शाम को ही समय पर उसे शराब की याद आयी। मन में बहुत ललक उठी कि चुपके से जाकर शराब पी लूं । फिर उसे पत्नी और परिवार की डाँटफटकार की याद आयी। कुछ समय बाद फिर शराब पीने की हक उठी, उसने अपनी प्रतिज्ञा को याद किया-मैंने शराब पीने की शपथ ली थी, पर वह तो सबके सामने शराब पीने की शपथ थी। एकान्त में जाकर अकेले में चुपके से थोड़ी शराब पी ली जाय तो क्या हर्ज है ? और फिर जिस किस्म की शराब मैं पीता था, उस किस्म की शराब पीने की मैंने शपथ ली है, दूसरे किस्म को शराब पी लूं तो क्या हानि है ? किन्तु फिर पत्नी के झिड़कने वाली क्रूर मुख मुद्रा, परिवार की बौखलाहट आदि आँखों के सामने उभर आयी। उसने उस समय शराब पीने का विचार स्थगित कर दिया। किन्तु रातभर उसे शराब के विचार आते रहे। स्वप्न भी ढेर सारे आये शराब पीने के कि वह स्वप्न में शराब की कई बोतलें गटगटा गया। सुबह उठा तो शरीर में बहुत सुस्ती थी । दिन भर शराब का चिन्तन चलता रहा। आखिर रात में चुपचाप शराब की दुकान पर चला गया। एक कोने में जाकर बैठ गया। उसने इशारे से बढ़िया किस्म की शराब का आर्डर दिया। दो प्याले शराब के पेट में उड़ेल दिये । घर जाकर चुपचाप बिस्तर पर सो गया। यह क्रम सदा चलने लगा। उसने अपने मन में यह सोचकर सन्तोष कर लिया कि मैंने जो शराब पीने की प्रतिज्ञा की है, वह अमुक किस्म की और सबके सामने न पीने की है । मैं अब जो शराब पीता हूँ वह बढ़िया किस्म की तथा चुपचाप अकेला पीता है। इसमें मेरी प्रतिज्ञा में कोई आंच नहीं आती। इस प्रकार शराब का बार-बार स्मरण एवं चिन्तन करने से वह पहले की अपेक्षा अधिक शराब पीने लगा।
हाँ तो, इसी प्रकार बुराई का बार-बार स्मरण करने, चिन्तन करने से वह नहीं छूट सकती, वह तो संस्कारों में और अधिक घुल-मिल जाएगी एवं प्रच्छन्न रूप से होने लगेगी। इस तरीके से तो धीरे-धीरे मनुष्य उसका आदी बन जाता है।
यही बात आध्यात्मिक दृष्टि से विचारणीय है। किसी को क्रोध छोड़ना है, अभिमान छोड़ना है, माया व लोभ छोड़ना है, तो वह कैसे छोड़ेगा ? कौन-सा तरीका अपनायेगा, इन चारों कषायों को छोड़ने के लिए ? अगर अपना उपयोग या ध्यान बार-बार क्रोधादि कषायों के साथ जोड़ेगा, इसी का चिन्तन-मनन चलेगा, इन्हीं की उधेड़बुन में मन लगता रहेगा तो कषाय के छूटने के बजाय और अधिक दृढ़ व बढ़ते जायेंगे। आत्म-परिणति शुद्ध होने के बजाय क्रोधादि के बारबार विचार से अशुद्ध-अशुद्धत्तर होती चली जायेगी। पूर्वापेक्षा और अधिक रूप से कषाय की गिरफ्त में जकड़ जायेंगे। जैन-दर्शन का यह दृष्टिकोण रहा है-'अविच्चुई धारणा होई' जिस वस्तु का पुनः-पुनः स्मरण किया जाता है, वह कालान्तर में धारणा का रूप ले लेती है, संस्कारों में जड़ जमा लेती है। भगवान महावीर से जब क्रोधादि चारों कषायों से छूटने का कारण पूछा गया तो उन्होंने आत्मा के मूल स्वभाव की दृष्टि से समाधान दिया
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