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| श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ ।
श्री जैन दिवाकरजी के प्रिय पद्य : ४४० :
सद्गुरु कनक कामनी त्यागी, आप तिरे पर तारै रे । तप क्षमा दया रस भीना, सूत्र उच्चारे रे ॥२॥ ये आठ बोल तो भवी-अभवी, कई जीव ने मिल जावे रे। नहीं श्रद्धा होवे तो कुगुरु, मिल भरमावे रे ॥३॥ अबके श्रद्धा गाढ़ी राखो, शुद्ध पराक्रम को फोड़ो रे । अल्प दिनों के मांही आठों, कर्म को तोड़ो रे ॥४॥ यह दश बोल की क्षीर मसाला, दान-पुण्य से पाई रे । अनन्त काल की भूख-प्यास, थारी देगा भगाई रे ॥५॥ निर्धन का धनवान हुए, ज्यू अन्धे आँखाँ पाई रे।। चन्द्रकान्त मोती के मानिन्द, नर देह साही रे ॥६॥ गुरु प्रसादे 'चौथमल' कहे, कीजे धर्म कमाई रे। उन्नीसे और सत्तर साल में जोड़ बनाई रे ॥७॥
७. धर्म का दवाखाना (तर्ज-तरकारी लेलो मालिन तो आई बीकानेर की) आए वैद्य गुरु जी, ले लो दवाई बिना फीस की ।।टेर।। ले लो दवाई है सुखदाई, देर करो मत भाई। नब्ज दिखाओ रोग बताओ, दो सब हाल सुनाई रे।।१।। सत्संग की शीशी के अन्दर, दवा ज्ञान गुणकारी। एक चित्त से पियो कान से, सकल मिटे बीमारी रे ।।२।। टिटिस कोप और थर्मामीटर, मति-श्रुति ज्ञान लगाओ। साध्य-असाध्य भवी-अभवी, भेद रोग का पाओ रे ॥३॥ दया सत्य दत्त ब्रह्मचर्य है, निर्ममत्व फिर खास । शम दम उपशम कई किसम की, दवा हमारे पास ॥४॥ रावण कंश मरे इस कारण, रोग हुआ अभिमान । लोभ रोग ने भी पहुँचाई, अनन्त जीव को हान रे ॥५॥ जुआ मांस मदिरा वेश्या है, चोरी बुरी शिकार । परनारी यह सब बद परहैजी बचे रहो हुशियार रे ॥६॥ त्याग तप से ताव तिजारी, रोग शोक मिट जावे । हो निरोग शिव महल सिधावे, मन इच्छित फल पावे रे ॥७॥ चर्चा चूरण बड़ा तेज है, जो कोई इसको खावे। संशय रूपी बदहाजमा, तुरत-फुरत मिट जावे रे ॥८।। सम्वत् उन्नीसे अस्सी साल में देवास शहर मझारी। गुरु प्रसादे 'चौथमल' यह, दवाखाना किया जहारी रे ॥६॥
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