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: २०३ : श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम
श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
मनि यदि वह केवल मुनि है तो उसका ऐसा होना अपर्याप्त है, चूंकि मुनि समाज से अपना कायिक पोषण ग्रहण करता है, उसे अपनी साधना का साधन बनाता है अत: उस पर समाज का जो ऋण हो जाता है, उसे लौटाना उसका अपना कर्तव्य हो जाता है, माना समाज इस तरह की कोई अपेक्षा नहीं करता (करना भी नहीं चाहिये), किन्तु जो वस्तुत: मुनि होते हैं, वे समाज के सम्बन्ध में चिन्तित रहते है और उसे अपने जीवन-काल में कोई-न-कोई आध्यात्मिकनैतिक खुराक देते रहते हैं, यह खुराक प्रवचनों के रूप में प्रकट होती है ।
मुनिश्री चौथमलजी एक वाग्मी सन्त थे, वाग्मी इस अर्थ में कि वे जो-जैसा सोचते थे, उसे त्यों-तैसा अपनी करनी में अक्षरश: जीते थे। आज बकवासी सन्त असंख्य-अनगिन हैं, क्या हम इन्हें सन्त कहें ? बाने में भले ही उन्हें वैसा कह लें, किन्तु चौथमल्ली कसौटी पर उन्हें सन्त कहना कठिन ही होगा। जिस कसौटी पर कसकर हम मुनिश्री चौथमलजी महाराज को एक शताब्दि-पुरुष या सन्त कहते हैं, वास्तव में उस कसौटी की प्रखरता को बहुत कम ही महन कर सकते हैं।
उन जैसा युग-पुरुष ही समाज की रगों में नया और स्वस्थ लह दे पाया, अन्यों के लिए वह डगर निष्कण्टक नहीं है, कारण बहुत स्पष्ट है, उनकी वाणी और उनके चारित्र में एकरूपता थी; जो जीभ पर था, वही जीवन में था; उसमें कहीं-कोई दुई नहीं थी, इसीलिए यदि हमें उस शताब्दि पुरुष को कोई श्रद्धांजलि अर्पित करनी है तो वह अंजलि निर्मल-प्रामाणिक आचरण की ही हो सकती है, किसी शब्द या मुद्रित ग्रन्थ या पुस्तक की नहीं। उस मनीषी ने साहित्य तो सिरजा ही, एक सांस्कृतिक सामन्जस्य स्थापित करने के प्रयत्न भी किये। इस प्रयत्न के निमित्त वे स्वयं उदाहरण बने, क्योंकि वे इस मरम को जानते थे कि जब तक आदमी स्वयं उदाहरण नहीं बनता, तब तक अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। अधिकांश लोग उदाहरण देते हैं, उदाहरण बन नहीं पाते; आज उदाहरण देने वाले लोग ही अधिक हैं, उदाहरण बनने वाले लोगों का अकाल पड़ गया है। लोग कथाएँ सुनाते हैं, और सभा में हंसी की एक लहर एक सिरे से दूसरे सिरे तक दौड़ जाती है, बात आयी-गयी हो जाती है, किन्तु उससे न तो वक्ता कुछ बन पाता है, न श्रोता।
प्रसिद्धवक्ता मुनिश्री चौथमलजी वक्ता नहीं थे, चरित्र-सम्पदा के स्वामी थे, उनका चारित्र तेजोमय था, वे पहले अपनी करनी देखते थे, फिर कथनी जीते थे; वस्तुतः संतों का सम्पूर्ण कृतित्व भी इसी में है, इसलिए क्रान्ति के लिए जो साहस-शौर्य चाहिये वह उस शताब्दिपुरुष में जितना हमें दिखायी देता है, उतना उनके समकालीनों और उत्तरवर्तियों में नहीं। यही कारण था कि वे एकता ला सके और एक ही मंच पर कई-कई सम्प्रदायों के मुनिमनीषियों को उपस्थित कर सके, उनका यह अवदान न केवल उल्लेखनीय है वरन् मानव-जाति के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य है। अन्यक्षरों में उत्कीणित उनका वह पुरुषार्थ आज भी हमारे सन्मुख एक प्रकाश-स्तम्भ की भाँति वरदान का हाथ उठाये खड़ा है उस कवच-जैसा जो किसी भी संकट में हमारी रक्षा कर सकता है। सब जानते हैं कि जब कोई आदमी महत्त्वाकांक्षाओं की कीच से निकल कर एक खुले आकाश में आ खड़ा होता है, तब लगता है कि कोई युगान्तर स्थापित हुआ है, युग ने करवट ली है, कोई नया सूरज ऊगा है, कोई ऐसा कार्य हुआ है, जो न आज तक हुआ है, न होने वाला है, कोई नया आयाम मानव-विकास का, उत्थान का, प्रगति का खुला है, उद्घाटित हुआ है।
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