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: २८१ : जैन दिवाकरजी महाराज की
कुछ यादें
श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
जैन दिवाकरजी महाराज की कुछ यादें
* ( स्व ० ) श्री रिषभदास शंका
जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी सम्प्रदाय में स्व० श्रीचौथमलजी महाराज का नाम बहुत आदर के साथ स्मरण किया जाता है, स्थानकवासी समाज के वर्तमान इतिहास में उनका कार्य स्वर्णाक्षरों में लिखने जैसा है, वे स्थानकवासी समाज की श्रमण परम्परा में 'जैन दिवाकर' के रूप में सुप्रसिद्ध रहे हैं ।
दीक्षा के बाद जैन दिवाकरजी महाराज ने न केवल जैनधर्म, बल्कि दूसरे धर्मों का भी गहरा अध्ययन किया । यही कारण है कि उनके व्याख्यानों का प्रभाव जनेतर जनता पर भी काफी पड़ता था । भाषा सरल और सुबोध होती थी इस कारण अपढ़ तथा ग्रामीण भाई भी आपके व्याख्यानों को आसानी से समझ लेते थे ।
दिवाकरजी महाराज सही मानों में धर्म को समझते थे और यही कारण है कि वे धर्मस्थानकों में जातीयता और वर्णवाद को घुसने नहीं देते थे, उनके प्रवचनों में मनुष्य मात्र को बेखके प्रवेश मिलता था । आज हजारों कलाल, खटीक, मेघवाल, मोची, हरिजन, आदि ऐसे मिलते हैं जो दिवाकरजी महाराज का स्मरण बड़ी श्रद्धा से करते हैं । दिवाकरजी महाराज ने उन लोगों में से मांस-मदिरा के व्यसन को दूर किया, उनके चरित्र को सुधारा । इसका परिणाम यह हुआ कि ये लोग आर्थिक दृष्टि से सुधर गये, मांस-मदिरा के सेवन से इन लोगों का जीवन जो पहले नर्क तुल्य रहता था वह अब इतना सुन्दर और व्यवस्थित हो गया कि देखते ही बनता है । यह सब दिवाकरजी महाराज की वाणी और चरित्र का ही प्रभाव । हमारी दृष्टि में तो सैकड़ों शिष्य बढ़ाने और लम्बे-लम्बे लेक्चर देने की अपेक्षा किसी के जीवन का निर्माण करना अधिक महत्त्व रखता है । भारतीय धार्मिक परम्पराओं में निचले वर्ग की इतनी उपेक्षा हुई है कि उसके दुष्परिणामों से उच्च वर्ग भी नहीं बच सका है। दिवाकरजी महाराज ने इस ओर ध्यान दिया और अछूतोद्धार तथा पतितोद्धार का बीड़ा उठाया, यह उनकी समाज -साधना थी ।
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ऐसे समाज-साधक में साम्प्रदायिकता और रूढ़ि चुस्तता नहीं रह सकती, वह तो मानवता का उपासक बन जाता है । सामाजिक कुरीतियों के प्रति भी उसमें दर्द होता है; क्योंकि वे कुरीतियाँ समाज की हानि करती हैं । बाल विवाह, वृद्ध विवाह, बहुविवाह, मोसर, आतिशबाजी, वेश्यानृत्य, फिजूलखर्ची आदि का वे विरोध करते रहते थे
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समाज की उन्नति में साम्प्रदायिकता की बाधा को वे समझ गए थे । इसीलिए कोटा में उन्होंने दिगम्बर आचार्य श्री सूर्यसागरजी महाराज और मूर्तिपूजक आचार्य श्री आनन्दसागरजी महाराज के साथ एक स्थान पर बैठकर साम्प्रदायिक मेलजोल बढ़ाने तथा भेदभाव को दूर करने का कार्यं प्रारम्भ किया । अपने जीवन के अन्तिम दिनों में उन्होंने समूचे जैन समाज की एकता के लिए जो कार्य किया, उसे भुलाया नहीं जा सकता । वे युग की माँग और आवश्यकता के दृष्टा साधु थे । समाज की उन्नति एकता के बिना असम्भव है, इसे वे जान गए थे । हमें हर्ष है कि आज उनका शिष्य समुदाय भी इस एकता को बनाये हुए है ।
समाज-सुधार के आर्थिक दृष्टि से भी उनका चितन महत्त्वपूर्ण था। समाज के गरीब और
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