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श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
प्रवचन कला : एक झलक : ४२८ :
६०. मनुष्य की विवेकशीलता इस बात में है कि भूतकाल से शिक्षा लेकर वर्तमान को सुधारे और वर्तमान का भविष्यत् के लिए सदुपयोग करे । जिसमें इतनी भी बुद्धि नहीं, उसे मनुष्य कहना कठिन है।
६१. परमात्मा में न सुगन्ध है और न दुर्गन्ध है। उसमें न तीखा रस है, न कटुक है, न कसैला है, न खड़ा है और न मीठा है । वह सब प्रकार के स्पर्शों से भी रहित है । न कर्कश है, न कोमल है, न गुरु है, न लघु है, न शीत है, न उष्ण है, न चिकना है और न रूखा है।
६२. ज्ञान का सार है विवेक की प्राप्ति और विवेक की सार्थकता इस बात में है कि प्राणिमात्र के प्रति करुणा का भाव जागृत किया जाए। किसी ने बहुत पढ़ लिया है। बड़े-बड़े पोथे कण्ठस्थ कर लिये हैं, अनेक शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर लिया है। मगर उसके इस ज्ञान का क्या प्रयोजन है, यदि वह सोच-विचार कर नहीं बोलता ?
६३. जिन वचनों से हिंसा की प्रेरणा या उत्तेजना मिले वह वचन भाषा के दुरुपयोग में ही सम्मिलित है बल्कि यह कहना उचित होगा कि हिंसावर्धक वचन भाषा का सबसे बड़ा दुरुपयोग है।
६४. जो व्यक्ति, समाज या देश विवेक का दिव्य दीपक अपने सामने रखता है और उसके प्रकाश में ही अपने कर्तव्य का निश्चय करता है, उसे कभी सन्ताप का अनुभव नहीं करना पड़ता; उसे असफलता का मुंह नहीं देखना पड़ता।
___६५. विवेकवान् डूबने की जगह तिर जाता है और विवेकहीन तिरने की जगह भी डूब जाता है।
१६. धर्म व्यक्ति को ही नहीं, समाज को, देश को और अन्ततः अखिल विश्व को शान्ति प्रदान करता है। आखिर समाज हो या देश, सबका मूल तो व्यक्ति ही है और जिस प्रणालिका से व्यक्ति का उत्कर्ष होता है, उससे समूह का भी उत्कर्ष क्यों न होगा ?
६७. विवेक वह आन्तरिक प्रदीप है जो मनुष्य को सत्पथ प्रदर्शित करता और जिसकी रोशनी में चलकर मनुष्य सकुशल अपने लक्ष्य तक जा पहुंचता है। विवेक की बदौलत सैकड़ों अन्यान्य गुण स्वतः आ मिलते हैं। विवेक मनुष्य का सबसे बड़ा सहायक और मित्र है।
६८. शान्ति प्राप्त करने की प्रधान शर्त है समभाव की जागृति । अनुकूल और प्रतिकूल संयोगों के उपस्थित होने पर हर्ष और विषाद का भाव उत्पन्न न होना और रागद्वेष की भावना का अन्त हो जाना समभाव है ।
६६. जरा विचार करो कि मृत्यु से पहले कभी भी नष्ट हो जाने वाली और मृत्यु के पश्चात् अवश्य ही छूट जाने वाली सम्पत्ति को जीवन से भी बड़ी वस्तु समझना कहाँ तक उचित है ? अगर ऐसा समझना उचित नहीं है तो फिर लोभाभिभूत होकर क्यों सम्पत्ति के लिए यह उत्कृष्ट जीवन बर्बाद करते हो ?
१००. यह शरीर दगाबाज, बेईमान और चोर है। यदि इसकी नौकरी में ही रह गया तो सारा जन्म बिगड़ जाएगा; अतएव इससे लड़ने की जरूरत है। दूसरे से लड़ने में कोई लाभ नहीं, खुद से ही लड़ो।
१०१. मन सब पर सवार रहता है, परन्तु मन पर सवार होने वाला कोई विरला ही माई का लाल होता है; मगर धन्य बही है, जो अपने मन पर सवार होता है।
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