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:४२७ : विचारों के प्रतिबिम्ब
| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-वान्य
भला करता है और अपना नुकसान कर लेता है, वह दूसरे नम्बर का भला आदमी है, लेकिन जो दूसरे का नुकसान करके अपना भला करता है, वह नीच है।
७८. जैसे सूर्य और चन्द्र का, आकाश और दिशा का बंटवारा नहीं हो सकता, उसी प्रकार धर्म का बँटवारा नहीं हो सकता। जैसे आकाश, सूर्य आदि प्राकृतिक पदार्थ हैं, वे किसी के नहीं हैं, अतएव सभी के हैं, इसी प्रकार धर्म भी वस्तु का स्वभाव है और वह किसी जाति, प्रान्त, देश या वर्ग का नहीं होता।
७६. धर्म का प्रांगण संकीर्ण नहीं, बहुत विशाल है। वह उस कल्पवृक्ष के समान है जो समान रूप से सबके मनोरथों की पूर्ति करता है और किसी प्रकार के भेदभाव को प्रश्रय नहीं देता।
८०. नम्रता वह वशीकरण है जो दुश्मन को भी मित्र बना लेती है; पाषाण हृदय को भी पिघला देती है।
८१. वास्तव में नम्रता और कोमलता बड़े काम की चीजें हैं। वे जीवन की बढ़िया शृगार हैं, आभूषण हैं, उनसे जीवन चमक उठता है ।
८२. ज्ञान प्राप्त करने के लिए विनम्रता की आवश्यकता होती है । विनीत होकर ही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
८३. किसी में बुराई है तो बुराई की ओर मत देखो; बुराई की ओर देखोगे वह तुम्हारे अन्दर प्रवेश कर जाएगी। जैसा ग्राहक होता है, वह वैसी ही चीज की तरफ देखता है।
८४. जीवन में थोड़ा-सा भी समय बहुत मूल्य रखता है। कभी-कभी ऐसे महत्त्वपूर्ण अवसर आते हैं, जिन पर आपके भावी जीवन का आधार होता है। उन बहुमूल्य क्षणों में अगर आप प्रमादमय होंगे तो आपका भावी जीवन बिगड़ जाएगा और यदि सावधान होंगे, आत्माभिमुख होंगे तो आपका भविष्य मंगलमयी बन जाएगा।
८५. दवाओं के सहारे प्राप्त तन्दुरुस्ती भी कोई तन्दुरुस्ती है। असली तन्दुरुस्ती वही है कि दवा का काम ही न पड़े। दवा तो बूढ़े की लकड़ी के समान है। लकड़ी हाथ में रही तब तक तो गनीमत और जब न रही तब चलना ही कठिन । इसी प्रकार दवा का सेवन करते रहे तब तक तो तन्दुरुस्ती रहे और दवा छोड़ी कि फिर बीमार के बीमार । यह भी कोई तन्दुरुस्ती है ?
८६. जो वस्तु आत्मा के कल्याण में साधक नहीं है, उसकी कोई कीमत नहीं है।
८७. इस भ्रम को छोड़ दो कि जैन कुल में जन्म लेने से आप सम्यग्दृष्टि हो गये। इस खयाल में भी मत रहो कि किसी के देने से आपको सम्यग्दर्शन हो जाएगा; नहीं, सम्यग्दर्शन आपके आत्मा की ही परिणति है, एक अवस्था है। आपकी श्रद्धा, रुचि या प्रतीति की निर्मलता पर सम्यग्दर्शन का होना निर्भर है । शुद्ध रुचि ही सम्यग्दर्शन को जन्म देती है।
८८. कैसी भी रेतीली नदी बीच में आ जाए, धोरी बैल हिम्मत नहीं हारता । वह रास्ता पार कर ही लेता है। वह वहन किये भार को बीच में नहीं छोड़ता। इसी प्रकार सुदृढ़ श्रद्धा वाला साधक अंगीकार की हुई साधना को पार लगा कर ही दम लेता है।
८६. साधु-संतों का काम है जनता की शुभ और पवित्र भावनाओं को बढ़ावा देना; अप्रशस्त उत्तेजनाओं को, जो समय-समय पर दिल को अभिभूत करती हैं दबा देना और इस प्रकार संसार में शान्ति की स्थापना के लिए प्रयत्नशील होना।
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