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श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ||
श्री जैन दिवाकरजी के प्रिय पद्य : ४३४ :
थे निर्मोही मोह नहीं आयो, मैं मोह कर कर हारी रे। मोरादेवी गज होदे गई, मोक्ष मंझारी रे।६। समत उगणी से साल चौंसठे भोपाल सेखे कारी रे। गुरु प्रसादे 'चौथमल' कहे, धन्य मेहतारी रे ७।
१०. जिनवाणी
(तर्ज-पनजी मुंडे बोल) श्री जिनवाणी रे २, तू सुन थारी सुधरे जिन्दगानी रे ।टेर। तिरिया तिरे अनन्त तिरेगा, श्रद्ध-श्रद्ध जिनवाणी रे। बेपारी तिरे नाव से जू, भवोदधि पानी रे।। गुण दोष-विचारन नर्क निवारन, अनन्त सुखां की दानी रे ।२। त्रफला त्रिदोष हरेयां अंध मेल हटानी रे। शूची सरस्वती भगवती, विद्या वरदानी रे।३। त्राता माता शारदा, इच्छित पूरण ब्रह्माणी रे। आदि पुरुष से प्रकट भई, ग्रही उत्तम प्रानी रे।४। ऊँट ने इखू नहीं भावे, गद्ध मिश्री नहीं मानी रे। ज्वर से भोजन रुची जाय जैसे अज्ञानी रे।५। सुदर्शन सेठ श्रद्ध जिनवाणी, संयम लियो हित जानी रे। छती ऋद्ध तज जम्बूकंवर वरी शिवरानी रे।६। गुरु प्रसादे 'चौथमल' कहे, चातुर ने पहचानी रे। स्वर्ग मोक्ष की दाता, सांची पुण्य बेल बधानी रे।७।
११. घट में भगवान
(तर्ज-आये आये हैं जगदोद्धारक) देखो देखो इस घट के पट में, प्रगट हैं भगवान ।टेर। करोड़ों रवि से अति प्रकाश है, झगमग झगमग ज्योति । तेरा मेरा तजे न जब तक, नहीं प्रकाशित होती ।। इधर उधर तू फिरे भटकता, नाहक वक्त गमावे। स्वयं प्रभु हैं खोजन वाले, गुरु मिले तब पावे ।२। घृत दुग्घ में गन्ध पुष्प में, रस इक्षु के मांई। बिना क्रिया के जुदा न होवे, समझा ज्ञान लगाई।३। कठिन तपस्या करी वीर ने, निजानन्द को पाया। 'चौथमल' कहे उन्हीं प्रभु ने, आतम ज्ञान बताया ।।।
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