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श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ ।
व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : ३७६ :
तृष्णा यानि लोभ का त्याग, क्षमा-भाव, अहंकार-हीनता, पाप-कार्यों से विरक्ति, सत्यभाषण, साधु-मार्ग का अनुसरण, विद्वानों की सेवा, पूज्यों की पूजा, शत्रुओं के साथ भी विनयनम्रता का भाव, कीर्ति की रक्षा (ऐसा कोई काम न करना जिससे अपयश हो) तथा दुःखियों पर दया-भाव-ये ही सज्जनों के, सन्तों के कुछ लक्षण हैं।
मुनिश्री में ये सारे सन्तोचित गुण थे। प्रत्येक गुण पर पृथक्-पृथक् प्रकाश डालना अप्रासंगिक न होगा।
१. लोभ-त्याग
सांसारिक दुःख वैभव को ठुकराकर ही इन्होंने आध्यात्मिक साधना का कठोर मार्ग स्वीकार किया था। मुनिश्री के मुनि-जीवन में भी लोभ का भाव कभी नहीं रहा । भौतिकता में डूबे राजा-महाराजा गुरुदेव के सदुपदेश से प्रभावित होकर ऐश्वर्य की भेंट देना चाहते, किन्तु मुनि श्री उसे अस्वीकार कर देते थे। इनकी निस्पृहता से धनी-मानी व्यक्ति पर आध्यात्मिक प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता था। मुनिश्री यदि कोई भेंट लेते भी थे तो वह थी सदाचार की, दुर्व्यसनत्याग की, अहिंसा-पालन की। एक मुसलमान नवाब से (पालनपुर चातुर्मास में) मुनिश्री ने शिकार, शराब, मांसाहार के त्याग की मेंट ली थी जो जिन शासन की प्रभावना के इतिहास में विशिष्ट स्थान रखती है।
यश और पदवी का भी मुनिश्री को कोई लोभ नहीं था। जब उनसे आचार्य-पद ग्रहण करने की प्रार्थना की गई तो उन्होंने बड़े निरासक्ति भाव से कहा-'मेरे गुरुदेव ने मुझे मुनि की पदवी दी है, यही बहुत है। मुझे भला अब और क्या चाहिए।" २. अहंकारहीनता
उन्हें जैन दिवाकर, प्रसिद्धवक्ता, जगद्-वल्लभ, आदि पदवी मिलीं, किन्तु वे सदा इनसे निःस्पृह रहे । इतना अत्यधिक आदर पाकर भी उनके हृदय में कभी अहंकार नहीं दिखाई दिया । वे सदा ही स्वयं को भगवान् महावीर का एक सेवक (प्रहरी) मानते थे।
अहंभावी व्यक्ति अपने अस्तित्व की रक्षा दूसरों के अस्तित्व को मिटा कर भी करना चाहता है। अहंकार-हीन व्यक्ति अपने अस्तित्व को मिटा कर भी दूसरों के अस्तित्व की रक्षा करना चाहता है। महान् नीतिज्ञ विदुरजी ने उत्तम पुरुष का लक्षण बताते हुए कहा है"उत्तम पुरुष वह है जो सब का अस्तित्व चाहता है, किसी के विनाश का उसके मन में संकल्प नहीं उठता ।" मुनिश्री के जीवन में अनेक घटनाओं से इनकी निरहंकारिता की पुष्टि होती है। वि० सं० १९७३ में कानोड़ (उदयपुर) के बाजार में मुनिश्री का प्रवचन हो रहा था। वैष्णव भाइयों का जुलस आने वाला था। धार्मिक साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति उस समय हो गई थी। झगड़ा होने की संभावना को देख कर मुनिश्री ने अपना प्रवचन बन्द करने की घोषणा कर लोगों के समक्ष अपनी निर्मानता का प्रशंसनीय उदाहरण प्रस्तुत किया । वास्तव में सन्तों का स्वभाव ही है शान्ति-प्रियता।
किसी के प्रति, चाहे वह मुनिश्री की कैसी ही निन्दा करे, मुनिश्री की दुर्भावना या प्रतिकार-भावना कमी जागृत नहीं होती थी। वे सभी से हृदय खोल कर मिलते । लोग कहते, अमुक व्यक्ति वन्दना नहीं करता, तो मुनिश्री सहज-भाव से कहते-"उसके वन्दना करने से मुझेस्वर्ग प्राप्ति होने वाली नहीं, और वन्दना न करने से वह टलने वाला नहीं। मेरा आत्म-कल्याण तो
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