________________
श्री जेल दिवाकर - स्कृति-ग्रन्थ
श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ
व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : ४०० :
किया था। इस सम्बन्ध में मुनिश्री ने कमठ के पंचाग्नि तप की निस्सारता का वर्णन कर दया-धर्म की प्रतिष्ठापना की
वहाँ पर जाकर देखा कमठ को तापे पंच अगन । धूम्रपान और अज्ञान कष्ट से, कर रहा देह दमन ॥५६८॥ इसी समय अवधि ज्ञान लगाकर, देखा पार्श्वकुमार। नाग-नागिन का जोड़ा जलता, देखा अगन मझार ॥५६९।। देख दयालु कुवर कहे यों, कहो कैसा अज्ञान ? नहीं दया दिखाई देती, इस तपस्या दरम्यान ॥५७०॥ दया रहित धर्म से मुक्ति, हरगिज कोई न पावे । प्राणिवध से धर्म चहाय जूं, आग में बाग लगावे ॥५७१॥ सूर्यास्त के बाद दिवस ज्यों, सर्प मुख अमृत चावे । अजीर्ण से आरोग्य और, विष से जीवन बढ़ावे ॥५७२।। है प्रधान दया विश्व में, देखो इस प्रकार । बिन स्वामी के सेना, जीवन बिन काया है निःसार ॥५७३॥
'जम्बू चरित्र' में जीवन की क्षण-भंगुरता का बोध देकर भोग से योग और राग से विराग की ओर बढ़ने का मर्मस्पर्शी प्रसंग वर्णित है। नव विवाहित आठ वधुओं का परित्याग कर जम्बू संयम के पथ पर अग्रसर होते हैं। प्रभव चोर को उद्बोधन देकर जम्बूकुमार उसके हृदय को परिवर्तित करते हैं। उद्बोधन का यह वैराग्यपरक रूपक देखिए
मनुष्य जन्म के वृक्ष को, दो हाथी काल हिलावे रे। दिवस रैन का चहा उमर, काट गिरावे रे ॥१॥ भवसागर को मोटो कूप है, कषाय चार रहावे रे। बैठा मडो फाडने, थने निगलवो चावे रे ॥२॥ कुटुम्ब मक्षिका करे ला ला ला, चटका तन लगावे रे । काम शहद की बूंद चाट तू, क्यों ललचावे रे ॥३॥ गुरु विद्याधर धर्म जहाज ले, करुणा करी बुलावे रे । माने केण तो शिवपुर पाटन, थने पहुँचावे रे ॥४॥ अल्प सुखने दुख अनन्ते, गिरी राई न्याय लगावे रे ।
महा अनरथ की खान भोग में, क्यों ललचावे रे ॥२॥ उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मुनिश्री की सामाजिक चेतना वर्ग-संघर्ष को उभारने वाली न होकर आध्यात्मिक चेतना की पूरक, जीवन शुद्धि की प्रेरक और विश्वमैत्री भाव की संपोषक है। मुनिश्री के काव्य में विद्रोह है, पर वह पारस्परिक आदर्शों के प्रति न होकर, विषयविकारग्रस्त जड़परम्पराओं और संस्कारों के प्रति है। मुनिश्री का काव्य जड़ता के प्रति चैतन्य का विद्रोह है, विकृत के प्रति संस्कृति का मंगल उद्घोष है और है खोई हुई दिशाओं में मानवता के परित्राण के लिए मार्गदर्शक आलोक-स्तम्भ ।
पता-श्री संजीव भानावत सी० २३५-ए० तिलक नगर, जयपुर-४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org