________________
श्री जैन दिवाकर म्मृति-ग्रन्थ ।
प्रवचन कला : एक झलक : ४१६ :
(२४) धन-सम्पत्ति को साथ ले जाने का एक ही उपाय है और वह यह कि उसका दान कर दो, उसे परोपकार में लगा दो, खैरात कर दो।
(२५)
कोई असाधारण व्यक्ति हो या साधारण आदमी हो भले ही तीर्थकर ही क्यों न हो, यदि उसने पहले अशुभ कर्म उपार्जन किये हैं तो उन्हें भोगना ही पड़ता है। 'समरथ को नहिं दोष गुसाई' की बात कर्मों के आगे नहीं चल सकती। अच्छे कर्म करोगे अच्छा फल पाओगे, बुरे कर्म करोगे, बुरा फल मिलेगा। कर्म करना तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है, मगर फल भोगना इच्छा पर निर्भर नहीं है । शराब पीना या न पीना मनुष्य की मर्जी पर है, मगर जो पी लेगा उसका मत वाला होना या न होना उसकी इच्छा पर निर्भर नहीं है। उसकी इच्छा न होने पर भी उसे मतवाला होना पड़ेगा। इसलिए मैं बार-बार कहता हूँ कि खाली हाथ मत जाना।
(२६) तुम्हारी यह रईसी और सेठाई किसके सहारे खड़ी है ? बेचारे गरीब मजदूर दिनरात एक करके तुम्हारी तिजोरियां भर रहे हैं । तुम्हारी रईसी उन्हीं के बल पर और उन्हीं की मेहनत पर टिकी हुई है । कभी कृतज्ञतापूर्वक उसका स्मरण करते हो ? कभी उनके दुःख में भागीदार बनते हो? अपने सुख में उन्हें हिस्सेदार बनाते हो? उनके प्रति कभी आत्मीयता का भाव आता है ? अगर ऐसा नहीं होता तो समझ लो कि तुम्हारी सेठाई और रईसी लम्बे समय तक नहीं टिक सकेगी। तुम्हारी स्वार्थपरायणता ही तुम्हारी श्रीमन्तताई को स्वाहा करने का कारण बनेगी। अभी समय है-गरीबों, मजदूरों और नौकरों की सुधि लो। उनके दुःखों को दूर करने के लिए हृदय में उदारता लाओ। उनकी कमाई का उन्हें अच्छा हिस्सा दो। इससे उन्हें संतोष होगा और उनके संतोष से तुम सुखी बने रहोगे। शैलीगत विशेषता
अन्त में पूज्य श्री जैन दिवाकरजी महाराज की शैलीगत विशेषताओं पर कुछ प्रकाश डालना आवश्यक प्रतीत होता है।
श्री जैन दिवाकरजी महाराज गुत्थियों को और अधिक उलझाना नहीं वरन् सरल-सहज मुद्रा में सुलझाना जानते थे। दो भिन्न तटों पर खड़े व्यक्तियों के बीच उनके प्रवचन मित्रता और एकता के सेतु होते थे । वस्तुतः वे कैची नहीं सूई थे, जिनमें चुभन थी किन्तु दो फटे दिलों को जोड़ने की अपूर्व क्षमता थी। उनके प्रवचन सरल, सरस, सुबोध, सुलझे हुए और अध्ययनपूर्ण थे । जिनमें वैचारिक निर्मलता के साथ अनुभूति का अमृत भी मिला होता था। उनकी प्रवचन शैली अपनी निराली थी। वह किसी का अनुकरण-अनुसरण नहीं थी, मौलिक थी। जब वे बोलना प्रारम्भ करते थे, तब कुछ उखड़े-उखड़े लगते, एकदम बालकों की तरह साधारण बातें सुनाते ।...."किन्तु कुछ ही क्षणों बाद वे प्रवचन के बीच इस प्रकार जमते और अन्त में ऐसे असाधारण-अलौकिक हो उठते कि सारा मैदान उनके हाथ रहता। मैं उनकी प्रवचन शैली की तुलना फ्रान्स के विशिष्ट विचारक विक्टर ह्य गो की लेखन शैली से करता हूँ".""भाषा उनकी सीधी-सादी, सरल-सुबोध
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org