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: ४२१ : विचारों के प्रतिबिम्ब
प्रसिद्धवक्ता श्री जैन दिवाकरजी महाराज के
श्री जैन दिवाकर स्मृति - ग्रन्थ
विचारों के प्रतिनिध
['जहाँ झूठ का वास होता है, वहाँ सत्य नहीं रह सकता । जैसे रात्रि के साथ सूरज नहीं रह सकता और सूरज के साथ रात नहीं रह सकती, उसी प्रकार सत्य के साथ झूठ और झूठ के साथ सत्य का निर्वाह नहीं हो सकता ।]
१. धन चाहे जब मिल सकता है, किन्तु यह समय बार-बार मिलने वाला नहीं; अतएव धन के लिए जीवन का सारा समय समाप्त मत करो । धन तुच्छ वस्तु है, जीवन महान् है । धन के लिए जीवन को बर्बाद कर देना कोयलों के लिए चिन्तामणि को नष्ट कर देने के समान है ।
२. धर्म, पंथ, मत या सम्प्रदाय जीवन को उन्नत बनाने के लिए होते हैं, उनसे आत्मा का कल्याण होना चाहिये; किन्तु कई लोग इन्हें भी पतन का कारण बना लेते हैं ।
३. आत्मा निर्बल होगी तो शरीर की सबलता किसी भी काम नहीं आयेगी । तलवार कितनी ही तेज क्यों न हो, अगर हाथ में ताकत नहीं है तो उसका उपयोग क्या है ?
४. अहिंसा में सभी धर्मों का समावेश हो जाता है, ठीक वैसे ही जैसे हाथी के पैर में सभी के पैरों का समावेश हो जाता है ।
५. जैसे मकान का आधार नींव है, उसीप्रकार मुक्ति का मूलाधार सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञान के अभाव में मोक्षमार्ग की आराधना कभी नहीं हो सकती ।
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६. धर्म पर किसी का आधिपत्य नहीं है । धर्म के विशाल प्रांगण में किसी भी प्रकार की संकीर्णता और भिन्नता को अवकाश नहीं है । यहाँ आकर मानव मात्र समान बन जाता है ।
७. जो धर्म इस जीवन में कुछ भी लाभ न पहुँचाता हो और सिर्फ परलोक में ही लाभ पहुँचाता हो, उसे मैं मुर्दा धर्म समझता हूँ । जो धर्म वास्तव में धर्म है, वह परलोक की तरह इस लोक में भी लाभकारी अवश्य है ।
८. आपको दो नेत्र प्राप्त हैं। मानो प्रकृति आपको संकेत दे रही है कि एक नेत्र से व्यवहार देखो और दूसरे नेत्र से निश्चय देखो । एकान्तवाद प्रभु की आज्ञा के विरुद्ध है ।
६. धर्म किसी खेत या बगीचे में नहीं उपजता, न बाजार में मोल बिकता है। धर्म शरीर से - जिसमें मन और वचन भी गर्मित हैं— उत्पन्न होता है । धर्म का दायरा अत्यन्त विशाल है । उसके लिए जाति-बिरादरी की कोई भावना नहीं है । ब्राह्मण हो या चाण्डाल, क्षत्रिय हो या मेहतर हो, कोई किसी भी जाति का हो, कोई भी उसका उपार्जन कर सकता है ।
१०. राष्ट्र के प्रति एक योग्य नागरिक के जो कर्तव्य हैं, उनका ध्यान करो और पालन
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