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श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
प्रवचन कला की एक झलक : ४२० :
प्रत्युत्तर में मुस्कान लिये गुरुदेव ने कहा-"क्यों साहब ! सामने वाले वृक्ष के पत्ते हिल क्यों रहे हैं ?"
"हवा से"—प्रश्न कर्ता ने कहा । "क्या आप हवा देख रहे हैं ?" "नहीं, मुनिजी" "फिर भी आप हवा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं।"
पत्तों के हिलने से आपने विश्वास किया कि 'पत्ते हवा से हिल रहे हैं।' हवा दिखाई नहीं देती उसका आभास पत्तों के हिलने से मालूम हुआ। उसी प्रकार आत्मारूपातीत है। इन्द्रियाँ उसे पकड़ नहीं पातीं, फिर भी शरीर के हिलने-चलने से आत्मा का स्पष्टतः आभास होता है। उसके छोड़कर चले जाने पर शरीर मत बन जाता हैं। जैसे
पुष्पं गन्धं तिले तैलं काष्ठे वह्निः पये घतम् ।
इक्षौ गुडं तथा देहं पश्यात्मानं विवेकतः ॥ -जैसे फूलों में गन्ध, तिलों में तैल, काष्ठ में अग्नि, दूध में घृत, गन्ने में गुड़ परिव्याप्त है, उसी प्रकार शरीर व्यापी आत्मसत्ता रही हुई है।
प्रश्नकर्ता को 'आत्मवाद भी एक ढकोसला है' ये शब्द वापिस लेना पड़ा और गुरुदेव का अत्यन्त आभार मानकर आगे बढ़े।
इस प्रकार गुरुदेव के वक्तृत्व शैली के एक नहीं अनेक रोचक प्रसंग सुरक्षित हैं । केवल एक प्रवचन ने कइयों के अस्तोन्मुखी जीवन को उदयोन्मुखी बनाया है ।
आज समाज में ऐसे समन्वयात्मक प्रवक्ता की पूरी आवश्यकता है। वस्तुतः तभी समाज को सही मार्ग-दर्शन मिल सकता है, आज समाज दिग्मूढ बना हुआ है। एक ही कारण है 'समन्वय साधक का अभाव' ।
प्रसिद्ध वक्ता श्री जैन दिवाकरजी महाराज के मननीय प्रवचनों के लिए निम्न साहित्य पढ़ना चाहिए:
दिवाकर दिव्य ज्योति (भाग १ से २१) सं० पं० श्री शोभाचन्दजी भारिल्ल
प्राप्तिकेन्द्र : जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय
महावीर बाजार, ब्यावर (अजमेर)
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