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श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
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प्रवचन कला की एक झलक : ४२४ :
ती कर लो कि उसे स्वयं भी रास्ता मालूम है या नहीं ? विज्ञ सारथी को ही अपना जीवन-रथ सुपुर्द करो; ऐरे गैरे को गुरु बना लोगे तो अन्धकार में ही भटकना पड़ेगा ।
३८. किसी की निन्दा करके उसकी गंदगी को अपनी आत्मा में मत समेटो गुणीजनों का आदर करो । नम्रता धारण करो । अहंकार को अपने पास मत फटकने दो ।
३६. यह क्या इन्सानियत है कि स्वयं तो भला काम न करो और दूसरे करें और कीर्ति पावें तो उनसे ईर्ष्या करो ? ईर्ष्या न करके अच्छे-अच्छे काम करो ।
४०. जिसका जितना विकास हुआ है उसी के अनुसार उसे साधना का चुनाव करना चाहिए और उसी सोपान पर खड़े होकर अपनी आत्मा का उत्थान करने का प्रयत्न करना चाहिए । ४१. मानव जीवन की उत्तमता की कसोटी जाति नहीं है, भगवद् भजन है जो मनुष्य परमात्मा के भजन में अपना जीवन अर्पित कर देता है और धर्मपूर्वक ही अपना जीवन-व्यवहार चलाता है, वही उत्तम है, वही ऊंचा है, चाहे वह किसी भी जाति में उत्पन्न हुआ हो। उच्च-सेउच्च जाति में जन्म लेकर भी जो हीनाचारी है, पाप के आचरण में जिसका जीवन व्यतीत होता है। और जिसकी अन्तरात्मा कलुषित बनी रहती है, यह मनुष्य उच्च नहीं कहला सकता ।
४२. शुद्ध श्रद्धावान् मनुष्य ही स्व-पर का कल्याण करने में समर्थ होता है। जिसके हृदय श्रद्धा नहीं है और जो कभी इधर और कभी उधर लुढ़कता रहता है, वह सम्पूर्ण शक्ति से, पूरे मनोबल से साधना में प्रवृत्त नहीं हो सकता और पूर्ण मनोयोग के बिना कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती । सफलता श्रद्धावान् को ही मिलती है ।
४३. मिथ्यात्व से बढ़कर कोई शत्रु नहीं है । बाह्य शत्रु बाहर होते हैं और उनसे सावधान रहा जा सकता है, मगर मिध्यात्वं शत्रु अन्तरात्मा में घुसा रहता है, उससे सावधान रहना कठिन है । वह किसी भी समय, बल्कि हर समय हमला करता रहता है। बाह्य शत्रु अवसर देखकर जो अनिष्ट करता है उससे भौतिक हानि ही होती है, मगर मिध्यात्व आत्मिक सम्पत्ति को धूल में मिला देता है। ४४. विज्ञान ने इतनी उन्नति की; मगर लोगों की सुबुद्धि की तनिक भी तरक्की नहीं हुई । मनुष्य अब भी उसी प्रकार खूंख्वार बना हुआ है, वह हिंसक जानवर की तरह एक-दूसरे पर गुर्राता है और शान्ति के साथ नहीं रहता। अगर मनुष्य एक-दूसरे के अधिकारों का आदर करे और न्यायसंगत मार्ग का अनुसरण करे तो युद्ध जैसे विनाशकारी आयोजन की आवश्यकता ही न रहे। ४५. हिंसा में अशान्ति की भयानक ज्वालाएं छिपी हैं। उससे शान्ति कैसे मिलेगी ? वास्तविक शान्ति तो अहिंसा में ही निहित है । अहिंसा की शीतल छाया में ही लाभ हो सकता है । ४६. मनुष्य कितना ही शोभनीक क्यों न हो, यदि उसमें गुण नहीं है तो वह किस काम का ? रूप की शोभा गुणों के साथ है।
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४७. याद रक्खो और सावधान रहो दिन रात हर समय तुम्हारे भाग्य का निर्माण हो रहा है। क्षण भर के लिए भी अगर तुम गफलत में पड़ते हो तो अपने भविष्य को अन्धकारमय बनाते हो । सबसे अधिक सावधानी मन के विषय में रखनी है। यह मन अत्यन्त चपल है। समुद्र की लहरों का पार है, पर मन की लहरों का पार नहीं है। इसमें एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी लहर उत्पन्न होती ही रहती है। इन लहरों पर नियन्त्रण रखना आवश्यक है।
४८. वर्तमान में जो कुछ भी प्राप्त है, उसमें सन्तोष धारण करना चाहिए। सन्तोष ही
शान्ति प्रदान कर सकता है सकती और यदि सन्तोष है सकता है।
करोड़ों और अरबों की सम्पत्ति भी तो अल्प साधन-सामग्री में भी मनुष्य
सन्तोष के बिना सुखी नहीं बना आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत कर
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