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: ४०१ : मानव धर्म के व्याख्याता
मानव धर्म के व्याख्याता
श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
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श्री जैन दिवाकरजी महाराज
* डॉ० ए० बी० शिवाजी एम० ए०, पी-एच० डी०
श्री जैन दिवाकर साहित्य का अध्ययन करने के बाद ऐसा अनुभव होता है कि जैन दिवाकरजी महाराज इस वसुन्धरा के कण-कण में व्याप्त थे । वे स्वयं मानवता के अंग बन गये थे और अहिंसा ही उनके लिए वह साधन तत्व था जिसके आधार पर वे जैन संतों की कोटि में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना पाये। " वसुन्धरा मेरा कुटुम्ब, मानवता मेरी साधना और अहिंसा मेरा मिशन " की उदघोषणा करने वाले श्री जैन दिवाकरजी महाराज मानव धर्म के व्याख्याता होने को सिद्ध करते हैं ।
मानव धर्म के पालन में जो सबसे अधिक महत्व की बात है वह यह कि आत्मा की शुद्धता | आत्मा की शुद्धता ही मानव-धर्म का प्रथम स्तर है । वे लिखते हैं- "संसार में जितने पन्थ और धर्म हैं, सब आत्मा को उज्ज्वल बनाने के लिए ही हैं। आत्मा को उज्ज्वल बनाये बिना कल्याण नहीं हो सकता । आप चाहें स्थानक में जाइए, चाहे मन्दिर में जाइए, गंगा में स्नान कीजिए या जमुना में डुबकी लगाइए, मस्जिद में जाकर नमाज पढ़िए या गिरजाघर में प्रार्थना कीजिए, जब तक आत्मा पवित्र नहीं होगी आपका निस्तार नहीं ।"" अर्थात् मानव धर्म की व्याख्या वही व्यक्ति कर सकता है और समझ सकता है जिसकी आत्मा शुद्ध हो चुकी हो । मानव धर्म का पालन भी ऐसा ही व्यक्ति कर सकता है। श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने मानव धर्म को व्यक्तित्व ही में नहीं उतारा किन्तु कार्यों में परिणित भी किया ।
वर्तमान का युग विज्ञापन युग है। प्रत्येक प्राणी छोटे-से-छोटे कार्य का विज्ञापन करवाना चाहता है, किन्तु श्री जैन दिवाकरजी महाराज मानव धर्म के व्याख्याता होने के कारण इसके विरुद्ध थे । वे कहा करते थे, "जिसने निन्दा और प्रशंसा को जीत लिया है, जो 'समो निन्दा पसंसासु अर्थात् निन्दा और प्रशंसा में समभाव धारण करता है, जो निन्दा सुनकर विषाद का और प्रशंसा सुनकर हर्ष का अनुभव नहीं करता, वही सच्चा सन्त या महात्मा है।"२ मानव धर्म के कार्यों में निन्दा और प्रशंसा को समभाव से देखना आवश्यक है और श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने इस तत्व को भी बहुत अच्छे ढंग से समझा और जाने वाली पीढ़ी को प्रेरणा दी। उनका मत था कि "निन्दा मनुष्य को आत्म-निरीक्षण की ओर प्रवृत्त करती है और आत्म-निरीक्षण से दोषों का परित्याग करने की ओर झुकाव होता है ।"" निन्दा और प्रशंसा जीवनपर्यन्त मनुष्य के साथ-साथ चलते हैं, किन्तु इन दोनों तत्वों से अनासक्ति रखना वास्तव में मानव धर्म है, मनुष्य का कर्त्तव्य है । आत्मा की उज्ज्वलता और निन्दा और प्रशंसा के प्रति अनासक्ति इन दोनों ने श्री जैन दिवाकरजी महाराज को एक ऐसा हृदय दिया था जो परोपकार की भावना से ओत-प्रोत था। बे । परोपकार को मानव धर्म मानते थे । धर्म और परोपकार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । वे कभी
१ दिवाकर दिव्य ज्योति भाग ११, पृ० २३
२ वही भाग १, पृ० १४५
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३ वही,
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