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| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
प्रवचन कला : एक झलक : ४१०:
(१) दर
(६) मुनिश्री अपने आत्मस्पर्शी अनुभव, आध्यात्मिक चिन्तन और ज्ञानाराधन की संवेदना के धरातल से जब प्रवचन देते थे तब उनकी अमृतवाणी से बीच-बीच में सूक्ति रूपी मोती सहसा बरस पड़ते थे । इन मोतियों की भंगिमा, छवि और छटा बहुरंगी है। कहीं जीव और शिव के साक्षात्कार की अखण्ड आनन्दानुभूति है तो कहीं प्रकृति के विराट क्षेत्र की दिव्य सौन्दर्यानुभूति, कहीं समाज में फैली हुई कुरीतियों पर कट प्रहार है तो कहीं सुषुप्त आत्मा को जागृत करने का शंखनाद है । ये सूक्तियाँ हृदय पर सीधा प्रभाव डालती हैं और निराशा में आशा, कठिनाई में धैर्य तथा विपत्ति में स्फुरणा बनकर थके-हारे मन को तरोताजा कर अपने गन्तव्य तक पहुँचने का सम्बल प्रदान करती हैं। कुछ उदाहरण देखिएणों को जरा-सा छिद्र मिलेगा और वे आपकी आत्मा को अपना घर बना लेंगे।
(भाग ८, पृ०१३) (२) दु:खों का मूल कारण यह स्थूल शरीर नहीं है बल्कि कार्मण शरीर है।
(भाग १२, पृ० ८७) (३) महापुरुष स्वयं आचरण करके मर्यादाओं की स्थापना करते हैं।
(भाग १२, पृ० ६७) (४) सम्यकदृष्टि में समभाव होता है और मिथ्यादृष्टि विषमभाव होता है।
(भाग ८, पृ० १५८) कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ये प्रवचन आत्मानुशासन, विश्वबन्धुत्व, सेवा, सहयोग, सहअस्तित्व जैसे सांस्कृतिक मूल्यों के संवाहक होने से सच्चे अर्थों में साहित्य की अमूल्य निधि हैं
और सबके प्रति हित की भावना व सबको साथ लेकर तथा सबमें ऐक्य भाव स्थापित करने में सक्षम व समर्थ हैं।
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एक बात : सरल अनुभवगम्य 'क्रोध और ताकत का दबाव कोई स्थायी दबाव नहीं है । शान्ति, क्षमा
और प्रेम के दबाव में ही यह शक्ति है कि दबा हुआ व्यक्ति फिर कभी मिर १ नहीं उठाता और न लड़ने आता है। यह ऐसी सरल और अनुभवगम्य बात ?
है कि संसार के इतिहास से सहज ही समझी जा सकती है। फिर भी आश्चर्य है कि बुद्धिमान कहलाने वाले राजनीतिज्ञ इसे नहीं समझ पाते और पागलों की तरह शस्त्रास्त्र तैयार करके एक-दूसरे पर चढ़ बैठते हैं। अब तक के युद्धों से ये लोग जरा भी शिक्षा नहीं लेते।
-मुनि श्री चौथमल जी म.
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