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श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
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मेवाड़, मारवाड़, हाड़ौती, सिरोही, रतलाम, मन्दसौर आदि राज्यों के राजा-महाराजाओं और आदिवासी क्षेत्र की कई जातियों ने मुनिश्री के धर्म उपदेश से प्रभावित होकर पशुबलि निषेध का व्रत ग्रहण किया। क्रूरता पर करुणा की और हिंसा पर अहिंसा की यह सबसे बड़ी विजय थी। मुनिश्री ने दयाधर्म का सही स्वरूप समझाते हुए कहा
प्रवचन -कला : एक झलक : ४०८ :
" माताजी के स्थान पर बकरों और भैंसों का वध किया जाता है । लोग अज्ञानवश होकर समझते हैं कि ऐसा करके वे माताजी को प्रसन्न कर रहे हैं और उनको प्रसन्न करेंगे तो हमें भी प्रसन्नता प्राप्त होगी। सोचना मूर्खता है। लोग माताजी का स्वरूप भूल गये हैं और उनको प्रसन्न करने का तरीका भी भूल गये हैं । इसी कारण वे नृशंस और अनर्थ तरीके आज भी काम में लाते हैं । सर्व मनोरथों को पूरा करने वाली और सब सुख देने वाली उन माता का नाम है दया माता । दया माता की चार भुजाएँ हैं । दोनों तरफ दो-दो हाथ हैं। पहला दान का दूसरा शील का, तीसरा तपस्या का और चौथा भावना का । जो आदमी दान नहीं देता, समझ लो कि उसने दया माता का पहला हाथ तोड़ दिया है। जो ब्रह्मचर्य नहीं पालता तो उसने दूसरा हाथ तोड़ दिया है । तपस्या नहीं की, तो तीसरा हाथ खंडित कर दिया है और जो भावना नहीं माता उसने चौया हाथ काट डाला है। ऐसा जीव मरकर वनस्पतिकाय आदि में जन्म लेगा जहाँ उसे हाथ-पैर नहीं मिलेंगे।" - दिवाकर दिव्य ज्योति भाग ७, पृ० ७५ व ८२
मुनिश्री ने देखा कि आत्मशुद्धि, जीवन शुद्धि एवं सामाजिक प्रगति में बाधक है— नशीली वस्तुओं और सप्त कुव्यसनों का सेवन । ये व्यसन और भ्रान्त धारणा के कारण उच्च वर्ग से लेकर निम्न वर्ग तक में व्याप्त है। उच्च वर्ग में ये विलासिता के तथा निम्न वर्ग में विवशता के प्रतीक हैं। धूम्रपान, शिकार चोरी आदि कुव्यसनों के दुष्परिणामों का आप अपने प्रवचनों में सदैव जिक्र करते थे । छोटी-बड़ी मार्मिक कथाओं और स्व-रचित कविताओं के द्वारा आप ऐसा समाँ बाँधते थे कि श्रोता के जीवन में मोड़ आए बिना नहीं रहता । बिहारी के एक दोहे ने जयपुर महाराजा जयसिंह को रंग महल से बाहर निकाल कर कर्तव्य पथ की ओर अग्रसर किया था, पर मुनिश्री के प्रवचनों ने हजारों की संख्या में राजाओं, जागीरदारों, रईसों और निम्न वर्ग के लोगों को व्यसन मुक्त कर, शुद्ध सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा दी।
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शिकार करने वाले लोगों को प्रेम पूर्वक समझाते हुए आप कहा करते थे— 'शिकार करना अत्यन्त निर्दयता पूर्ण और अमानवीय कार्य है। मनुष्य भी प्राणी है और पशु-पक्षी भी प्राणी है। मनुष्य की बुद्धि अधिक विकसित है, इस कारण उसे सब प्राणियों का बड़ा माई कहा जा सकता है । पशु-पक्षी, मनुष्य के छोटे भाई हैं। क्या बड़े भाई का यह कर्तव्य है कि वह अपने कमजोर छोटे माई के गले पर छुरा चलावे ? नहीं, बड़े भाई का काम रक्षण करना है, भक्षण करना नहीं।' - दिवाकर दिव्य ज्योति, भाग १२, पृ० २६४
स्वादलोलुप व्यक्ति ने पशु-पक्षियों के प्रति ही कर भाव पैदा नहीं किया वरन् उसके अहं भाव ने मनुष्य के प्रति भी घृणा पैदा करदी है छुआछूत का रोग समाज में ऐसा फैला कि सारी प्रगति ही अवरुद्ध हो गई। अछूतों से घृणा करने वाले लोगों की मनोवृत्ति पर व्यंग्य करते हुए मुनिश्री ने कहा - ' जूतों को बगल में दबा लेंगे, तीसरी श्र ेणी के रेल के मुसाफिरखाने में जूतों को सिरहाने रखकर सोएंगे, मगर चमार से घृणा करेंगे ।'
- दिवाकर दिव्य ज्योति, भाग ११, पृ० १०८
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