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श्री जैन दिवाकर स्मृति- ग्रन्थ
सफलता संदिग्ध है | कठिन से कठिन तथा असम्भव कार्य उद्यम या पुरुषार्थ के बल पर सम्भव हो जाते हैं । उद्यम हीन जीवन नरक तुल्य है। पौराणिक उदाहरण देते हुए पुरुषार्थ की सिद्धि के प्रभाव को व्यक्त करते हुए मुनिश्री कहते हैं -
: ३६६ : काव्य में सामाजिक चेतना के स्वर
पुरुषारथ कर रामचन्द्रजी, सीता को लंका से लायें । उद्यम हीन के मन के मनोरथ मन के बीच रह जावें ॥ '
आधुनिक शिक्षा पद्धति की त्रुटियों से भी मुनिश्री पूर्ण परिचित थे । आधुनिक शिक्षा को अपूर्ण मानते हुए आपने कहा कि इस शिक्षा के प्रभाव से हमारा जीवन पाश्चात्य कुसंस्कारों से प्रभावित हुआ है । उसमें धर्म का उचित समावेश नहीं होने से नैतिक सामाजिक मूल्यों का हास हो रहा है । इसी शिक्षा के कारण सिनेमा, होटल, ब्रांडी आदि कुव्यसन प्रचलित हुए। वर्तमान पढ़ाई के बारे में आपकी मान्यता है
जो वर्तमान पढ़ाई है जिसमें रुचि धर्म की नाई है
मिले वहीं धर्म का योग, लगे फिर मिथ्यात्व का रोग, नहीं समझे लिहाज के मांई है ॥२
मनुष्य मात्र के लिए कुछ शिक्षाओं का निर्देशन अत्यन्त प्रभावपूर्ण तरीके से करते हुए आपने कहा
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पा मौका सुकृत नहीं करता, वह जहाँ में इन्सान नहीं । हीरा त्याग सुकर को लेवे, वह जौहरी प्रधान नहीं ॥ जिसके दिल में रहम नहीं, उसके दिल में रहमान नहीं। जिसने सत्संग नहीं करो, उसको सहूर और ज्ञान नहीं ॥ जिसके बदन में नहीं नम्रता, उसको मिलता मान नहीं । वह वैद्य है क्या दुनियां में, जिसे नब्ज को पहिचान नहीं, वह मोक्ष कैसे जावे, जिसका साबित ईमान नहीं ॥
मुक्तक काव्य के अतिरिक्त मुनिश्री के चरित्र काव्यों में भी सामाजिक चेतना का स्वर बुलन्द है । जैन कथा - साहित्य में ऐसे कई चरित्र हैं जो अपने सत्य, शील, जीवदया और धर्म के लिए प्राणोत्सर्ग करने में नहीं हिचकते । मुनिश्री ने ऐसे पुरुष और स्त्री चरित्रों को माध्यम बनाकर कई सुन्दर चरित्र-निर्माणकारी और संस्कारवर्धक काव्यों की रचना की है। इनमें भगवान् पार्श्वनाथ चरित्र, नेमिनाथ चरित्र, जम्बूस्वामी चरित्र, श्रीपाल चरित्र, भविष्यदत्त चरित्र, सुपार्श्वनाथ चरित्र, अर्हद्दास चरित्र, आदि मुख्य हैं । इन चरित्रों में चरित्रनायक के पूर्व भवों की साधनापरक घटनाओं का वर्णन करते हुए वर्तमान भव की संयम-आराधना का लोक गायकी शैली में ओजस्वी वर्णन किया गया है । प्रसंगानुसार समाज में व्याप्त अन्ध मान्यताओं और रूढ़ियों पर भी कुठाराघात किया है ।
भगवान पार्श्वनाथ ने अपने समय में तप के नाम पर प्रचलित अज्ञान तप का सख्त विरोध
२ वही, पृ० १२० - १२१ ॥
१ जैन सुबोध गुटका, पृ० ३५-३६ ।
३ वही, पृ० १४३ |
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