________________
थ
:३७७ : जैन इतिहास के एक महान तेजस्वी सन्त
मेरे अपने कार्यों से ही होगा, किसी की वन्दना से नहीं।"२ मुनिश्री का यह सरल-भाव उनके श्रामण्य का सूचक है और सभी के लिए अनुकरणीय है ।
____असल में सरलता जीवन-शुद्धि के लिए एक अनिवार्य गुण है।' भद्रता ही भद्रता का मार्ग प्रशस्त करती है।
मुनिश्री लोगों को भी विनय, निरंहकारता तथा नम्रता का पाठ पढ़ाते थे। मन्दसौर चातुर्मास में (सं० १९६५) एक वृद्धा ने महाराज से कहा, "आपकी बात तो सभी लोग मान लेते हैं, पर मेरी कोई नहीं सुनता, मुझे भी अपना वशीकरण-मन्त्र दे दीजिये न।" महाराज ने उत्तर दिया-"माताजी ! सच्चा वशीकरण है मधुर वचन । चिढ़ाने वालों को भी आप मुख से कोई कठोर वचन न कहें । यही वशीकरण मन्त्र है।" वृद्धा ने इस मन्त्र का पालन किया और दो महीने बाद वह महाराज के पास आभार प्रकट करने आई और कहने लगी-"महाराज 1 आपका मन्त्र अमोघ है । मैं सुखी हो गई।"
उज्जैन चातुर्मास (सं० २००१) में एक दिन आपने तत्व-चर्चा के प्रसंग में विनय का महत्त्व स्पष्ट करते हुए कहा था-"मानव का कल्याण अकड़ कर चलने में नहीं, अपितु नम्रता के भावों से ही सम्भव है।"
३. क्षमा-भाव
चाणक्य का एक वचन है कि जिसके हाथ में क्षमा रूपी धनुष है, दुर्जन उसका क्या बिगाड सकता है। जैसे तिनकों से रहित भूमि पर पड़ी आग स्वयमेव शान्त हो जाती है। क्षमा समान कोई तप नहीं। मुनिश्री में क्रोध व द्वष का कतई अभाव था। रागद्वेष की बात ही उन्हें नहीं भाती थी। एक बार श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के एक आचार्य को (कोटा चातुर्मास, सं० २००७) आपने अपने यहाँ प्रवचन करने की स्वीकृति दी, उन आचार्य ने मुनिश्री के प्रति कुछ अनर्गल बातें कहीं। किन्तु मुनिश्री ने अपने प्रवचन में आलोचना के प्रति एक भी शब्द नहीं कहा। प्रवचन समाप्त होने पर मुनिश्री मनोहरलालजी महाराज ने खोटी आलोचना का उत्तर न देने का कारण जानना चाहा; तो मुनिश्री चौथमलजी महाराज ने उत्तर दिया-"लोग राग-द्वेष की बातें सुनने नहीं आते । राग-द्वेष की बातों में संकल्प-विकल्प जगते हैं। उनका मन निर्मल होगा, तो वे स्वयं ही अपने कहे पर पश्चात्ताप करेंगे।" मुनिश्री सच्चे अर्थों में निर्ममत्व, निरहंकारता के धनी थे।
वास्तव में क्षमा का पाठ मुनिश्री को अपनी माता से मिला था। मुनिश्री के सांसारिक पक्ष के बड़े भाई श्री कालूरामजी की हत्या दुर्व्यसनियों के हाथों हुई थी। पर हत्यारों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही का प्रसंग आने पर उनकी माता केसरबाई ने हत्यारों को क्षमा कर दिया। वर से वैर की आग बढ़ती है, उसे क्षमा-अमृत से शांत करना चाहिए-यह उनका मत था । धन्य है-यह अलौकिक क्षमा भाव । महाकवि तुलसीदास ने सन्तों को नवनीत (मक्खन) से भी बढ़ कर बताया है। जहां नवनीत अपने ताप से पिघलता है वहाँ सन्तस्वभावी व्यक्ति दूसरों के ताप (कष्ट)
२ दशवकालिक, ५,२,३० ३ सोही अज्जुअभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिठ्ठइ । ४ मद्दएणेव होअव्वं पावइ भद्दाणि भद्दओ।
-(उत्त० सू० ३।१२) —(उत्त० सू० नियुक्ति, ३२६)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org