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:३२३ : भारत के एक अलौकिक दिवाकर
श्री जैन दिवाकर-स्मृति-न्य
श्री चौथमलजी महाराज के हृदय में एक ऐसा ही सच्चा एवं पक्का वैराग्य उत्पन्न हआ और वे त्याग के शिखर पर चढ़ने के लिए बेचैन हो उठे। वैराग्य और त्याग के बीच में संघर्ष की एक विकट घाटी साधक को पार करनी पड़ती है। जिसके हृदय में लगन एवं धैर्य का जितना अधिक वेग होता है उतनी ही जल्दी वह उस विषमस्थल से आगे निकल जाता है। श्री जैन दिवाकरजी महाराज के जीवन-चरित्र के अध्ययन से मालूम होता है कि उन्हें भी त्याग-पथ के पथिक बनने के लिए एक ऐसा ही घोर संघर्ष का सामना करना पड़ा। स्मरण रहे कि व्यक्ति को विराग की भूमिका पर आने के लिए सबसे पहले अपने ही हृदय के मोह-पिशाच से लड़ना पड़ता है। इस संघर्ष में वर्षों भी बीत सकते हैं किन्तु जब साधक इस द्वन्द्व युद्ध में पूर्ण विजयी होता है तभी वह ज्ञानभित-वैराग्य की उच्च भूमिका पर आरोहण करता है । इसके पश्चात् त्याग की चोटी पर पहुंचने के लिए साधक के जीवन में बाह्य जगत के मोहक सम्बन्धों का संघर्ष शुरू होता है । इस संघर्ष में कभी वर्षों लग जाते हैं और कभी यह कुछ दिनों में सी समाप्त हो जाता है । जो साधक अपने भीतरी मोह पर विजय पा लेता है उसके पगों में अपने मोह की स्वर्ण शृङ्खला कोई नहीं डाल सकता । साधना एवं संयम पथ के लिए स्वयं को सहमत करने की अपेक्षा इस मार्ग का अनूगामी बनने के लिए दूसरे बन्धुओं की सहमति प्राप्त करना अधिक दुष्कर नहीं होता । वैराग्य की चट्टान से दुनिया के किसी मोह को टकराने की हिम्मत नहीं हो सकती । बन्धुओं का मोह वैराग्य से टकराता नहीं, केवल झूठे प्रलोभन दिखलाकर फुसलाता है। किन्तु ज्ञानी किसी फुसलाहट से नहीं आता। श्री चौथमलजी महाराज के जीवन पृष्ठ देखने से ज्ञात होता है कि वह प्रयत्न करने पर भी किसी प्रलोभन-जाल में नहीं फँसे । उनका विवाह भवितव्यता की इच्छा-पूर्ति के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं। उसके लिए उनकी अपनी कोई इच्छा व कामना नहीं थी। जो भ्रमर फूल की पांखुड़ी के निकट पहुँच कर भी उसके कोमल एवं कमनीय स्पर्श से अनभिज्ञ रहे वह भ्रमर कितना निस्पृह होगा। श्री चौथमलजी महाराज एक ऐसे ही निस्पृह वैरागी थे। उनके अग्रज और पिता के निधन ने उनके वैराग्य को और भी परिपुष्ट कर दिया। जीवन की अमंगल घटनाओं से माँ केसर का मन दुनिया से विरक्त हो चुका था। जो स्वयं विरक्त हो जाये वह दूसरों के लिए बन्धन नहीं बन सकता । जो माँ स्वयं साधिका बनने के लिए तत्पर हो उसका जीवन अपने साधक पुत्र के लिए कभी बाधक नहीं बन सकता । पूत्र के स्वरों में मां ने अपने स्वर मिलाये। श्री चौथमलजी महाराज एक आचारनिष्ठ गुरु की खोज में निकल पड़े। जो हृदय के अज्ञानतम को मिटाकर जीवन में सत्य का चमत्कृत प्रकाश बिखेर सके वही गुरु के सिंहासन पर समासीन होने के योग्य होता है । गुरु जीवन का चतुर-चितेरा तथा एक कुशल कलाकार माना जाता है । योग्य को योग्य की ही खोज होती है। और वह उसे निस्सन्देह प्राप्त हो ही जाता है। आखिर श्री चौथमलजी महाराज को आशुकवि श्री हीरालालजी महाराज के दर्शन हुए। यह दर्शन श्री चौथमलजी महाराज की खोज की बस अन्तिम सीमा थी। वस्तुत: यह दर्शन गुरु और शिष्य का एक प्रकार से मधुर मिलन था। कभीकभी जन्म-जन्म के बिछुड़े हुए हृदय बहुत ही रहस्यपूर्ण ढंग से मिल जाते हैं। संस्कारों का पारस्परिक आकर्षण अद्भुत एवं अचूक होता है । पूज्य श्री हीरालालजी महाराज के चरणों को पाकर मोक्षार्थी श्री चौथमलजी महाराज के तृषातुर नयनों को अनुपम सुखानुभूति हुई। हृदय गुरुचरणों में समर्पित होने के लिए विह्वल हो उठा । आपकी जैनेन्द्री दीक्षा की उत्कण्ठा-नदी में प्रबल वेग आ गया।
दीक्षा केवल वेश परिवर्तन नहीं, बल्कि त्याग के महापथ पर जीवन का समर्पण है; आत्मा के
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