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श्री जैन दिवाकर - स्मृति-ग्रन्थ
: ३५१: समाज-सुधार में सन्त-परम्परा
ओसवाल की धर्मप्राण अर्धांगिनी केसरबाई की कोख से जन्म लेकर, कौमार्यावस्था में विवाहोपरान्त इस भौतिक संसार से एक झटके से अपने आप को अलग कर जन-समाज के उत्थान के लिये अपने जीवन को मानव सेवा में समर्पित कर दिया, यही बालक जन्म से "चौथमल" नाम से अभिहित किया जाने लगा और इसी 'चौथमल' को 'यथा नाम' तथा गुण-के आधार पर जैन सम्प्रदाय में जैन "दिवाकर' मुनि के रूप में, सन्त के रूप में एक सच्चे तपस्वी, साधक, धर्मोपासक के रूप में पुजा गया और जिसके-सदूपदेशों से मानवता ने राहत की सांस ली। क्योंकि जैन दिवाकरजी महाराज ने अपने समय के समाज को देखा, परखा और उसमें व्याप्त विषमताओं को दूर कर मानवीय मूल्यों को स्थापित किया।
सन्त का जीवन गंगा की पवित्र-धारा की तरह गतिशील एवं प्रवाहमय होता है। संत का चरण दिशा-परिवर्तन का सूचक होता है। सन्त की दिव्यदृष्टि दिवाकर की भाँति तमोनाशिनी होती है। सन्तों का हास-परिहास प्राणी मात्र के लिये प्राणवायु का द्योतक होता है। सन्तों का जीवन हित के लिये समर्पित जीवन होता है। जैन दिवाकर सन्त श्री चौथमलजी महाराज का जीवन भी इस दृष्टि से खरा उतरता है। श्री दिवाकरजी महाराज ने समाजोत्थान के लिये आजीवन पैदल भ्रमण कर जन-मानस को सन्मार्ग की दिशा दी।
सन्त का जीवन साधना, सेवा, समर्पण और सहृदय का पुज होता है। यही उसकी संस्कृति का द्योतक होता है। वह अपनी मॅजी हुई आत्मा से दूसरों की आत्मा को मांजता है, संस्कारवान बनाता है। जैन सन्त मुनिश्री दिवाकरजी महाराज का जीवन भी साधना, सेवा और समर्पण का कोष था। सन्त दिवाकरजी महाराज ने समन्वय-परक दृष्टिकोण से दो प्राणियों को-दो से चार और चार से आठ इसी क्रम से परस्पर बन्धुत्व की भावनाओं को जन्म दिया और विभिन्न विचारधाराओं के सन्तों को एक मंच पर एकत्रित कर अपने समन्वयकारी दृष्किोण को सार्थक किया। सन्त समाज एवं राष्ट्र में व्याप्त विषमताओं को नष्ट करने हेतु यावज्जीवन प्रयत्नशील रहता हुआ अपनी 'इह लीला' समाप्त कर देता है और अपने अनुयायियों के लिए करणीय कार्य का मार्ग प्रशस्त करता है । सन्त दिवाकरजी महाराज ने भी अपने जीवन को इसके लिए समर्पित किया था।
जगत् वल्लभ सन्त दिवाकरजी महाराज ने परजन हिताय अपने जीवन को लगाया और झोंपड़ी से लेकर महलों तक अपना सन्देश पहुंचाया।
सन्तों का जीवन सूर्य-चन्द्र और बादल की भांति होता है। जैसे सूर्य बिना कहे आप ही कमलों को खिलाता है, चन्द्रमा बिना कहे कुमुद को प्रफुल्लित करता है, बादल बिना माँगे जल वृष्टि करते हैं उसी प्रकार सन्तजन भी बिना कहे परोपकार करते हैं
पद्माकरं दिनकरो विकचीकरोति, चन्द्रोविकाशयति करवचनवालम् ।
नाश्यथितो जल घरोतिजलं ददाति, सन्तः स्वयं पर हितेषु कृताभियोगाः ॥
मुनिश्री का जीवन परोपकारार्थ ही था, आपने समाज की बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न किया। आपने भगवान महावीर के पंचमहाव्रत सिद्धान्त अहिंसा, सत्य, अदत्त, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह के महत्त्व को समाज के समक्ष रखा। हिंसक और अधम मनुज के बारे में दिवाकरजी ने बताया
पंचेन्द्रिय मन औ र वचनकाय, श्वासानुछवासायुष्यप्राण । इनको जो प्राणी हनन कर, वह हिंसक मनुजाधम समान ।
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