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श्री जैन दिवाकर-म्मृति-ग्रन्थ
व्यक्तित्व की बहरंगी किरणें : ३६८ :
उदाहरणार्थ- 'वर्धमान शासन-पति तारण तिरण जहाज ।
नमन करी ने वीनवू दीजो शिवपुर राज ।। गौतम गणधर सेवता, सकल विघ्न टल जाय । अष्ट सिद्धि नव निधि मिले पग-पग सुख प्रगटाय ।। उपकारी सद्गुरु भला, तीनों लोक महान । आतम परमातम करे, यह गुरु माहात्म्य जान ।। शारदा माता प्रणमु, मांग बुद्धि विशाल । अभय दान पे कथन यह उत्तम बने रसाल ।
--"चम्पक चरित्र" इस प्रकार मंगलाचरण के साथ ग्रन्थ का अभिधेय स्पष्ट हो जाने से पाठक को यह ज्ञात हो जाता है कि ग्रन्थकार अपनी रचना में किस विषय का वर्णन करेगा। इस प्रकार के स्पष्टीकरण से पाठक उस ग्रन्थ को आद्योपान्त पढ़ता है। इसी में ग्रन्थ और ग्रन्थकार के श्रम की सफलता का रहस्य गभित है। श्रद्धेय श्री जैन दिवाकरजी महाराज अपने इस लक्ष्य में पूर्णतया सफल हैं।
ग्रन्थ रचना में श्री जैन दिवाकरजी महाराज का उद्देश्य
ग्रन्थ रचना में पूज्य श्री जैन दिवाकरजी महाराज का उद्देश्य अपना पांडित्य प्रदर्शन करना नहीं था। वे ज्ञानी थे, विद्वान थे, शास्त्र पारंगत थे। उन्होंने स्वदर्शन और दर्शनान्तरों के ग्रन्थों का तलस्पर्शी अध्ययन भी किया था। अतः चाहते तो वैसे ग्रन्थों की रचना भी कर सकते थे, जो विद्वद् भोग्य होते लेकिन वे सन्त थे, मानवीय भावों के चितेरे थे और स्व-कल्याण के साथ सर्वकल्याण के इच्छुक थे। अतः उन्होंने वही लिखा, जिससे मानव आत्म-परिष्कार करके प्रबुद्ध बने और दूसरों को बोध प्रदान करे।
सन्त और उनका आचार-विचार, व्यवहार, वाणी आदि सभी कुछ अन्धकार में पथ भूले पथिक के लिये प्रकाश स्तम्भ की भांति है । वे मोह-मूढ़ मानव को सन्मार्ग पर लाकर खड़ा कर देते हैं। पूज्य श्री जैन दिवाकरजी महाराज के लिये यह बात सर्वतः चरितार्थ होती है। उनके साहित्य में और प्रवचनों में सर्वत्र मानवता के मधुर स्वर प्रतिध्वनित होते हैं । इसके साथ ही मानव को उन भय स्थानों का दिग्दर्शन कराने के लिये उसकी कमजोरियों-स्खलनाओं एवं दुष्प्रवृत्तियों का भी संकेत है । जिनके पाश में आबद्ध होकर, मानवता को भूलकर दानव बनता है। यह दानवता की दावाग्नि रमणीय विश्व के वैभव को निगलने को आतुर हो जाती है । मानव के इस शुक्ल और कृष्ण पक्ष का आलेखन कराने के साथ उन अन्ध-विश्वासों की जानकारी कराई है। जिनकी कारा में आबद्ध होकर मानव अहित करता है। यथार्थ सत्य का बोध कराने के लिये सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र, सत्य, शील, तप, संयम, अहिंसा आदि की व्याख्या की है।
पूज्य श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने उक्त समग्र चित्रण 'कथाच्छलेन बालानाम् नीतिस्तदिह कथ्यते' के धरातल पर किया है। उन्होंने 'सत्यं ब्रूयात्-प्रियं ब्रूयात्' के अनुसार इस रीति से अपने कथ्य को व्यक्त किया है कि श्रोता और पाठक को यह अनुभव ही नहीं होता है कि यह सब तो पढ़े-लिखे ही समझ सकते हैं।
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