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श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ |
व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : ३७२:
की ओर बढ़ने की स्थिति है । ऐसे पतनोन्मुखी लोगों को एक मीठी चुटकी लेते हुए पूज्य श्री जैन दिवाकरजी महाराज समझाते हैं, कहते हैं
"भोग का रोग बड़ा व्यापक है। इसमें उड़ती चिड़िया भी फंस जाती हैं। अतएव इससे बचने के लिये सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये और चित्त को कभी गृद्ध नहीं होने देना चाहिये।"
__-दिवाकर दिव्य ज्योति दुर्जन-दुष्ट व्यक्ति सदैव दोष देखता रहता है अथवा बुराई करता है। ईर्ष्या में झुलसता रहता है। यदि कोई समझाये और उसकी कमजोरियों को दिखाये, तो अपना सुधार करने के बजाय क्रोधित होकर सज्जन व्यक्तियों को अपशब्द कहने से नहीं चूकता है। इसका ज्यों का त्यों चित्रण पूज्य श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने 'वसन्तर चरित्र में किया है
सारे शहेर महिमा छाई, सतिया के मन में भाई । कुलटा के दाय नहीं आई,कहे लोक निज निज पर जाई ।। नारी एक अमित तपा बाई, पति दलिद्री वा पाई। खावण पेरण पूरो नाई करे, पति भक्ति अति हुलसाई॥ धिक्कार पड़े थाके ताँई इच्छित पेरो इच्छित खाई। हकम उठवो थे नांई फेर सामो बोलो घुरराई। कचरी मोडी ने धरी रामतणी जाण पूरी। लड़ने को तो हो पूरी काम पडिया थे रहो दूरी॥ निज-निज पति के वाक्य सुन वे स्त्रियां तिण वार। क्रोधानल से परजली सीमा रही न लगाई। रोस करी नार्या केई देवे सती ने गाल।
उत्तम की निन्दा करे बांधे कर्म चंडाल ॥ दोषी व्यक्ति अपने दोष छिपाने की कोशिश तो बहुत करता है और झूठी शेखी बघारता है। इतना विवेकहीन हो जाता है कि सही बात न कहकर बहाने बाजी से दूसरों को भ्रम में डालने से भी नहीं चूकता है। लेकिन जानकर बात का विश्वास नहीं करते और उसे अपमानित होना पड़ता है। यह वर्णन देखिये 'द्रौपदी चरित्र' के निम्नलिखित उद्धरण में
मैं उमराव राज को बाजू ऐसो कियो उपाय । सनमुख होकर करी लड़ाई पाछो दियो भगायजी ।। इण कारण सुनगरी सारी बिगड़ गई सण नाथ । पूरा पुण्य आपका जिण से रही चौगुनी बात जी ॥
सुणता ही श्रीवास्देव यों रोस करी फरमावे। लाज हीण लापर मुझ आगल, झठी बात बणावेजी॥ म्हारे सरीखा उत्तम पुरुष वे निरदोषी शिरदार।
ज्या में दोष बतावियो सो थारो, मनुष्य जन्म धिक्कारजी। योग और भोग दोनों प्रतिपक्षी हैं। योगी विषय-भोगों को विनश्वर जान कर विरक्त हो संयम मार्ग पर अग्रसर होने की आकांक्षा रखता है, जबकि मोगी अधिक से अधिक विषय-मोगों
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