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श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ||
व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : ३५४ :
करने का भागीरथी प्रयत्न किया। आपने सामाजिक बुराइयों-बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह, कन्या विक्रय, वर विक्रय, मांसाहार, मदिरापान, कुशीलसेवन आदि का निषेध किया तो एकता, संगठन, क्षमा, दया, सत्य, कर्तव्य, लोक-सेवा, ज्ञान-भक्ति, वैराग्य, आध्यात्म, आत्म-ज्ञान, दृढ़ता, अहिंसा अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, इन्द्रिय-निग्रह, पYषर्ण, धर्म की तात्विक और व्यावहारिक मीमांसा, गार्हस्थधर्म और आत्म-सिद्धि आदि का बहुत सुन्दर ढंग से विवेचन किया। सामाजिक जीवन को ऊँचा उठाने में आपने भरसक प्रयत्न किया । आपके ज्ञानामृत पान से कई दुराचारी सदाचारी बने, कई मांसाहारी-शाकाहारी बने, कई दुश्चरित्र व्यक्ति चरित्रवान् बने, कई हिसक-अहिंसक बने और कई वेश्याओं ने कुत्सित एवं समाज विरोधी कृत्यों से मुक्ति ली।
जैन दिवाकर सन्त श्री एक महामनीषी के रूप में, श्रमण-संस्कृति के एक जीवन्त प्रतिनिधि के रूप में सम्पूर्ण भारतीय जीवन को कितना प्रभावित किया-यह उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से भली-भांति प्रकट होता है । जैन-सम्प्रदाय में ही नहीं, बल्कि विभिन्न मत-मतान्तरों के बीच समन्वय करना, उनके सामाजिक जीवन में जो कटाव, जो क्षरण, जो नुकसान और टूट-फूट हो गयी थी, जो शिथिलताएँ और प्रमाद उनके सांस्कृतिक एवं नैतिक जीवन में व्याप्त हो गयी थी उन्हें, किन कठिनाइयों का सामना करते हुए, उनकी मरम्मत की, उन्हें संभाला यह उनके रचित साहित्य और साधना से प्रकट होता है । क्योंकि सन्त दिवाकरजी महाराज का जीवन पवित्र था, उनका आचारविचार सात्विक था, उनका मन स्वच्छ निर्मल नीर-सा था। जेनेतर समाज में दिवाकरजी महाराज का महत्त्वपूर्ण स्थान एवं सम्मान था। जब मुनिश्री का व्याख्यान (लेखक ने कई बार व्याख्यान सुने हैं और मुनिश्री से शिष्यत्व ग्रहण किया था) होता था तब व्याख्यान श्रवणार्थ आबालवृद्ध नर-नारी बड़ी लगन से उनके व्याख्यान स्थल पर एकत्र हो मनोयोग से अमृतवाणी सुनते और अपने जीवन को सार्थक करते। आपके सदुपदेशों से आदिवासी समाज क्या, खटीकों व मोचियो आदि ने त्याग व्रत ग्रहण कर सात्विक जीवनयापन का संकल्प लिया। आपके व्याख्यानों को सुनने हेतु मंशी, मौलवी, पंडित, विद्वान् सभी आते थे और श्रवणोपरान्त गद्-गद् हो जाते थे।
सन्त मुनि अपने कथ्य को जन-भाषा में प्रस्तुत करते थे और विभिन्न धर्म-ग्रन्थों से उद्धरण देते हए विषय को स्पष्ट करते थे। क्योंकि जैनाचार्यों ने भाषा विषयक उदार दृष्टिकोण का सदैव परिचय दिया। दूसरों की तरह उनका किसी भाषा विशेष में धर्मोपदेश देने का आग्रह नहीं रहा । यहां तक कि प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं को अपनाकर उन्हें समृद्ध तथा गौरवशालिनी बनाने का श्रेय यदि किन्हीं को दिया जाना चाहिए तो जैनाचार्यों को ही। इतना ही नहीं आज की प्रान्तीय भाषाएँ भी इन्हीं की उपज हैं । राष्ट्र भाषा हिन्दी का सीधा सम्बन्ध इन्हीं भाषाओं से है।
इस सन्त महापुरुष को, हिन्दी, संस्कृत, अर्धमागधी, राजस्थानी, मालवी, गुजराती, खड़ी बोली, उर्दू आदि भाषाओं का ज्ञान था, किन्तु जब भी आप अपने विचार व्यक्त करते थे, तब आम जनता की (भाषा) बोली का सहारा लेते थे। यही उनका लोकनायकत्व गुण को प्रकट करता है।
सन्तों का जीवन समाज की सम्पत्ति होती है। संकीर्णता से काफी दूर उनका जीवन होता है । सन्त जन हित के कार्य करके समाज और राष्ट्र के चरित्र को उज्जवल बनाते हैं। मुनिश्री का जीवन भी इसका एक उदाहरण है। मुनिश्री जहाँ भी पधारे वहां उन्होंने व्यक्ति को ऊंचा उठाने का काम किया, उन्होंने सबसे पहले जैन मात्र को आदमी माना और माना कि आदमी फिर वह किसी भी कौम का हो, आदमी है। जिस प्रकार भगवान महावीर ने जाति और कुल के आधार पर
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