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श्री जैन दिवाकर - स्मृति-ग्रन्थ
व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : ३६० :
अन्त्योदय,
तथा
आज से ५० वर्ष पूर्व घनघोर सामन्ती युग में भी अन्त्यज, पतित और शद्र माने जाने वाले वर्ग के कल्याण और उत्थान के प्रयत्नों की एक रोचक दास्तान
पतितोहार साफल सूत्रधार टात श्रीजेज दिवाकर ती
५ श्री रवीन्द्रसिंह सोलंकी (कोटा)
–महामनीषी श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने श्रमण संस्कृति के एक जीवन्त प्रतिनिधि के रूप में सम्पूर्ण भारतीय जन-जीवन को प्रभावित किया ।
-जनों के सामाजिक जीवन में जो कटाव, जो क्षरण, जो नुकसान और जो टूट-फूट हो गई थी तथा जो शिथिलता आ गयी थी, उनको मुनिश्री चौथमलजी महाराज ने विभिन्न कठिनाइयो का सामना करते हुए उनकी मरम्मत की ।
-भगवान महावीर ने जाति और कुल के आधार पर किसी को छोटा-बड़ा नहीं माना, उनकी कसौटी तो थी 'कर्म'। इसी प्रकार मुनिश्री चौथमलजी महाराज ने भी आदमी को पहले आदमी माना, फिर चाहे वह किसी भी कीम का क्यों न हो।
-पतितों, शोषितों, दीन-दुखियों, पीड़ितों और तरह-तरह के कष्टों से संत्रस्त जन-सामान्य की पीड़ा पूरित अश्रु विगलित आँखों के आंसू पोंछने को सन्नद्ध अहर्निश सेवारत सन्त थे।
उपरोक्त कितने ही कथन जिस किसी आदर्श जैन सन्त के लिए लिखे जा सकते हैं उनमें जैन दिवाकर सन्त श्री चौथमलजी महाराज का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने अपने व्यक्तित्व से कई शोषित, पीड़ितों के मन-मन्दिर में चरित्र, धर्म का दीपक प्रज्वलित किया।
कलियुग में कई प्रकार की शक्तियाँ हैं, अणुबम से लेकर चांद पर पहुंचने वाली शक्तियां भी हैं, किन्तु ये सभी स्थायी व मानव को सन्तोष प्रदान करने वाली नहीं हो सकतीं। अतः प्राचीन समय से ही हमारे मनीषियों ने 'संघ शक्ति' को सर्वोच्च शक्ति माना और इसी क्रम में मुनिश्री चौथमलजी महाराज ने पांच सम्प्रदायों के प्रमुख संतों को एक लड़ी में पिरो दिया तथा उनका विलीनीकरण कर दिया ।
भगवान महावीर ने मनुष्य को आलस्य, अन्धविश्वास तथा कदाचार की कारा से मुक्त करने के लिए दीर्घकालीन अकथनीय प्रयत्न किये। मुनिश्री चौथमलजी महाराज भी उन्हीं के पदचिन्हों पर चलने वाले सच्चे अनुयायी थे, जिन्होंने जीवन-क्रांन्ति का नाद एक बार पुन: गुजाया और समाज तथा धर्मसंस्थाओं तथा राजतन्त्र में आयी शिथिलताओं, दुर्बलताओं, विकृतियों और विषमताओं
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