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:३६५ : साहित्य में सत्यं शिवं सुन्दरं के संस्कर्ता
शैली का प्रमुख स्थान रहा है और उसके बाद भी काफी समय तक जनता का लगाव पद्य शैली से रहा तथा वर्तमान में गद्य शैली का प्राधान्य है। लेकिन पद्य शैली आज भी जन-प्रिय है। उदाहरण के तौर पर यदि कहीं कवि-सम्मेलन हो, तो वहाँ ऐसे श्रोताओं की संख्या अधिक मिलेगी, जो साधारण भाषा के जानकार होने पर भी कवि के भावों को हृदयंगम करके झमने लगते हैं । इसी प्रकार यदि कहीं भजन-गीत होते हैं, तो लोगों के झुण्ड के झुण्ड शान्ति से सुनने के लिए बैठे रहेंगे । लेकिन इसके विपरीत यदि किसी समूह के बीच भाषण हो रहा हो और श्रोताओं को रुचिकर न हो अथवा स्पष्टता न हो तो हल्ला मच जायेगा और वक्ता को या तो बैठना पड़ेगा या सुनने वालों का समूह ही अपना-अपना रास्ता पकड़ लेगा।
पूज्य श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने अपने साहित्य का निर्माण गद्य और पद्य, दोनों शैलियों में किया है। लेकिन लोक-रुचि को सर्वोपरि मानकर पद्य शैली को ही मुख्यता दी है। यह पद्य साहित्य दो रूपों में उपलब्ध हैं-(१) पुराण-पुरुषों के चरित्र-कथानक एवं (२) फुटकर गीत संग्रह । गद्य शैली में भी कुछ ग्रन्थों की रचना की है। इसके अतिरिक्त आगमगत सिद्धान्तों का संकलन भी एक विशिष्ट ग्रन्थ में किया है। इन सब ग्रन्थों के नाम और उनका संक्षिप्त परिचय यथास्थान आगे दिया जा रहा है ।
पद्य शैली में रचित साहित्य में भी श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने पद्य की किसी एक विशेष विधा को नहीं अपनाया है, अपितु वर्ण्य विषय को समग्र रूप से प्रस्तुत करने के लिए प्रसंगानुसार दोहा, चौपाई आदि-आदि छन्दों एवं लोक धुनों का उपयोग किया है। जिस विधा से जो भाव स्पष्ट हो सकता है और जन-साधारण जिस धुन में समझ सकता है । उसका प्रयोग उन्होंने नि:संकोचरूपेण किया है। जिससे उसमें कर्णप्रियता के अतिरिक्त गेयता एवं रसानुमति का आनन्द भी पाठक को मिलता है।
श्रद्धय श्री जैन दिवाकरजी महाराज श्रमण सन्त धर्मोपदेशक थे। अतः उनके साहित्य में विषय लोलुपता आदि को बढ़ाने वाले श्रृंगार आदि साहित्यिक रसों की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। इसमें तो वैराग्यरस, शान्तरस जैसे हृदयस्पर्शी रसों के झरने फूट पड़े है।
जैन दिवाकरजी द्वारा रचित साहित्य श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने समय-समय पर जैन सिद्धान्तों की शिक्षाओं को स्पष्ट करने के लिए जितने फुटकर गीत लिखे, सम्भवत: उतनी संख्या में अन्य किसी जैन सन्त ने नहीं लिखे होंगे। इसे मां सरस्वती का वरदान माना जायेगा कि जब और जहाँ कहीं भी वे किसी धुन को सुनते और समझते कि इस धुन के माध्यम से किसी हित शिक्षा को जनता के लिए देना लाभप्रद रहेगा, तो किसी न किसी उपदेशी हित शिक्षा को उस धुन में श्रोताओं के सामने उपस्थित कर देते थे। ऐसे गीत आज भी सुनने को मिलते हैं, जो लिपिबद्ध संभवतः नहीं हुए हों, पर सुदूरवर्ती गांवों में बसे जैन परिवारों अथवा उनके उपदेशों से अनुप्राणित संस्कार सम्पन्न व्यक्तियों और परिवारों में गाये जाते हैं।
उक्त प्रकार के फुटकर गीतों-पद्यों को छोड़कर गद्य-पद्य में रचित ग्रन्थों के नाम निम्नलिखित हैं१. जैन सुख चैन बहार (पांच भाग) २. सीता वनवास ३. स्त्री शिक्षा भजन संग्रह
४. संशय शोधन
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